प्यासा समुन्दर
इब्ने सफी (इमरान सीरीज)
सिम्मी ने फ्राइंग पैन को सिन्क मे खाली करते हुए एक ठंडी साँस ली. आज फिर उसने एक गंदा अंडा तोड़ दिया था.......साथ साथ उस से पहले के तोड़े हुए अंडे भी खराब हो गये थे. बे-ख़याली उसके लिए नयी बात नहीं थी. वो बचपन ही से खोई खोई रहती थी..........और इस प्रकार के नुकसान उसके लिए नये नहीं थे. आए दिन होते ही रहते थे.
इस समय फ्राइंग पैन खाली करते हुए उसका ठंडी साँस लेना इसलिए नहीं था की नुकसान के कारण उसे तकलीफ़ हुई थी. बल्कि उस ठंडी साँस का कारण नौकरों के वो मैले कुचैले बच्चे थे जो एक दूसरे पर धूल उड़ा कर चीखते हुए इधर उधर दौड़ते फिर रहे थे.
सिम्मी जवान थी. लेकिन उसे इस तरह का बचपन गुज़ारने की लालसा ही रह गयी थी. उसके पापा ने उसे कभी 'जानवर' नहीं बनने दिया था. उनका कहना था की आदमी को किसी भी स्टेज मे 'आदमीयत' की सीमा से नहीं निकलना चाहिए. आदमी का बच्चा भी अगर चीखं-धाड़ मचाए तो फिर उसमे और एक कुत्ते के पिल्ले मे अंतर ही क्या रह गया.
मगर जब सिम्मी कुत्ते के पिल्ले वाले स्टेज मे थी तो उसे इसका सलीका भी नहीं था की आदमी और कुत्ते मे क्या अंतर होता है. उसे ज़बरदस्ती 'आदमी' बनाया गया था. इसलिए आज वो कुत्ते के पिल्लों को शोर मचाते, दौड़ते और धूल उड़ाते देख कर ठंडी आहें भर रही थी.
उसने फ्राइंग पैन धोकर दोबारा चूल्*हे पर रख दिया......और अपने पापा के बारे मे सोचने लगी. सोचने केलिए पापा के अलावा और था भी कौन. मम्मी तो उसी समय मर गयी थी जब वो अपने मुंह से मम्मी शब्द भी बोलने लायक नहीं थी. पापा ही ने उसकी परवरिश की थी.......और वो उसे बेहद चाहते थे.
मगर ना जाने क्यों उन्होने उसकी शिक्षा दीक्षा घर पर ही की थी. किसी स्कूल या कॉलेज मे पढ़ने केलिए कभी नहीं भेजा था. इसका कारण उन्होने आज तक नहीं बताया था. वो कोई साधारण आदमी भी नहीं थे.......की नैरो माइंड या नासमझ समझा जा सकता. वो देश के सब से बड़े साइंटिस्ट डा. दावर थे. वो डा. दावर जो देश की सब से बड़ी वैज्ञानिक प्रयोगशाला के मालिक और अटॉमिक रिसर्च के हेड थे.
सरकार से उन्हें अनुदान मिलती थी......और ये अनुदान वास्तव मे समुद्र से अटॉमिक एनर्जी प्राप्त करने की संभावना पर रिसर्च करने केलिए मिलती थी. डा. दावर इस संबंध मे नित नये नये परीक्षण करते रहते थे. उनका प्रयोगशाला समुद्र तट पर ही अवस्थित था......और इस से जुड़े हुए बिल्डिंग्स का फैलाओ ४ किलोमीटर के क्षेत्र मे था.
यहीं उनका आवास(रेसिडेन्स) भी था......जहाँ वो सिम्मी और कुछ नौकरों के साथ रहते थे. सादा जीवन बिताने के आदि थे.इसलिए रहन सहन मे चमक दमक और दिखावा नहीं था. अक्सर सिम्मी को भी ये निर्देश देते की वो अपने काम खुद अपने ही हाथों से करने की कोशिश किया करे.
हालाकि सिम्मी ने स्कूल या कॉलेज क मुह नहीं देखी थी लेकिन वो पर्दे मे नहीं रहती थी. डा. दावर उसे अलग थलक रखने की नीति भी नहीं अपनाए थे.
लॅबोरेटरी से संबंध रखने वाले दर्ज़नों व्यक्तियों से सिम्मी का मिलना जुलना रहता था. डा दावर ने कभी इस पर आपत्ति प्रकट नहीं किया था.
अक्सर वो अकेली साहिल पर टहलती हुई दूर निकल जाती और काफ़ी देर से घर वापस आती. लेकिन ये बात भी डा दावर केलिए चिंता की बात नहीं थी. वो तो वास्तव मे उसे 'जानवर' बनते देखना नहीं चाहते थे. अगर वो कभी ज़ोर ज़ोर से हँसना शुरू कर देती तो ये उन्हें बुरा लगता था. अगर वो कभी उँची आवाज़ मे बातें करती तो उन्हें अपने संस्कार के महल ढहते हुए दिखाई देते.
मगर वो दिल खोल कर ठहाके लगाना चाहती थी. बच्चों की तरह छलांगे मार कर दौड़ना चाहती थी. चीख चीख कर बातें करना चाहती थी.....वो चाहती थी की उस पर किसी प्रकार की पाबंदी ना रहे.
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Re: प्यासा समुन्दर
पश्चिम क्षितिज मे सूरज ढल रहा था. वो अपने पापा के बारे मे सोचती रही. मगर उसे उन पर कभी गुस्सा नहीं आता था. वो उनके उपदेश ठंडे दिल से सुनती थी और उनका पालन करने की चेष्टा करती थी. लेकिन ठंडी आहों पर तो उसका नियंत्रण नहीं था. वो तो निकल ही जाती थीं. उसके सपने भी बड़े विचित्र होते थे. अक्सर वो देखती की वो हवा मे उड़ती फिर रही है. बिल्कुल पक्षियों की तरह. कभी देखती की उसके सामने सैकड़ों मील तक हरे भरे जंगल फैले हुए हैं.......और वो हिरणियों की तरह छलांगें लगाती फिर रही है. कभी उसे नन्हे नन्हे मैले कुचैले बच्चों की फौज दिखाई देती और और वो उनके बीच खड़ी चीख रही है.......हलक फाड़ फाड़ कर गा रही है......और उसका अस्तित्व स्वयं लंबा ठहाका सा बनता हुआ दिखाई देता. कभी कभी वो जागते हुए भी ऐसे ही सपने देखती.
वो फ्राइंग पैन एक तरफ रख कर बे-ख़याली मे फिर खिड़की के समीप आ गयी. ये इमारत समुद्रा तट के निकट एक उँचे टीकरे(टीले) पर बनी हुई थी. टीले के नीचे नरकूलों की झाड़ियाँ थीं......जिनका सिलसिला साहिल तक चला गया था.
उसे समुद्र की सतह पर अस्त होते सूरज की लाली बहुत भली लगती थी. वो अक्सर उन्हें देर तक देखती रहती थी. और उसे ऐसा महसूस होता जैसे वो उस मचलती हुई चमकदार पगडंडी पर छलांगे लगाती सूरज की तरफ दौड़ रही हो.
कुछ देर बाद चौंक कर वो फिर अपने काम की तरफ आकृष्ट हुई. उस ने कुछ अंडे फ्राइंग पैन मे डाले और उनके सॅंडविच बनाने लगी.
आज डा. दावर बहुत अधिक व्यस्त थे. इसलिए उन्होने डिन्नर लबोरेटॉरी मे ही मँगवाया था. प्रायः ऐसा भी होता था की उनकी रातें लैब मे ही गुज़रती. सिम्मी ने जल्दी जल्दी टिफिन बॉक्स तैयार करके नौकर को दिया और ड्रेस चेंज कर के बाहर निकल आई.
वो केवल मछुवारों के घाट तक जाना चाहती थी. क्योंकि उसने सुना था की आज वहाँ मछुवारे कोई जश्न मनाने वाले हैं. इस से पहले भी वो अक्सर उनके जश्न से आनंद उठा चुकी थी. औरत मर्द सब साथ मिल कर नाचते थे. उन मे अक्सर तरह तरह के रूप और भेष बदल कर स्वांग भी रचते और सिम्मी हंसते हंसते बेहाल हो जाती. फिर उसे अपनी मूर्खता पर खेद होता. वो सोचती की वो भी कितना घटिया शौक रखती है. स्वांग भरने वालों के लीचर और भद्दे शब्द सुन कर हँसना कम से कम उसकी प्रतिष्ठा के अनुरूप नहीं है. मगर वो करती भी क्या. वो तो ऐसे अवसरों पर इस बुरी तरह बेसूध हो जाती की खुद को भी इसी लेवेल की एक व्यक्ति मानने लगती. अर्थात वो शारीरिक रूप से पूरी तरह उनका साथ नहीं दे सकती थी लेकिन उसकी आत्मा उनके साथ नृत्य करती थी. चीखती थी......गाती थी. और जब वो दिल खोल कर हंसते थे तब उनका साथ ज़रूर देती थी.
वो जानती थी की काफ़ी रात गये वापसी होगी. इसलिए वो अपनी टॉर्च साथ लाना नहीं भूली थी. घाट पर पहुच कर उसे पता चला की जश्न की खबर ग़लत थी. उसे बड़ी निराशा हुई......और एक अनाम सी चुभन उसके दिलो दिमाग़ मे कचोके लगाने लगी.
फिर अंधेरा फैल गया.......और पानी की सतह पर नावों की रौशनियों की छाया देखती रही. वैसे उसकी कल्पना मे मछुवारों का जश्न ज़ोर शोर से हो रहा था. वो उन्हें एक बहुत बड़े आलाव के निकट नाचते देख रही थी. वो गा रहे थे. हंस रहे थे. स्वांग भर रहे थे.......और सिम्मी खोई हुई थी.
तभी एक मोटर लांच उसके समीप आ कर रुकी और वो चौंक पड़ी. उस लॉंच पर शायद नेवी का गश्ती दस्ता था. उसने सोचा अब वापस चलना चाहिए. उसे अंधेरे से डर नहीं लगता था. वो एक निडर लड़की थी. हलाकि बचपन से ही उसे 'आदमी' बनने के संबंध मे जो ट्रैनिंग दी गयी थी उसके कारण उसे सचेत और डरपोक हो जाना चाहिए था. लेकिन ना जाने क्यों ऐसा नहीं हुआ.
वो अपने बंगला की तरफ चल पड़ी. उसे उस जगह से निश्चित रूप से गुज़रना पड़ता जहाँ से नरकुल की झाड़ियों का क्रम शुरू हुआ था. लेकिन वो अब तक हज़ारों बार अंधेरे मे उस तरफ से गुज़र चुकी थी. वैसे कई मर्दों की हिम्मत नहीं पड़ती थी की वो अधिक रात गये उधर से गुज़रें.
सिम्मी अपने विचारों मे खोई हुई रास्ता तय कर रही थी. रास्ता उसका सैकड़ों बार का देखा हुआ था......इसलिए उसने अब तक टॉर्च जलाने की ज़रूरत महसूस नहीं की थी.
नरकुल की झाड़ियों के समीप पहुंच कर अचानक वो रुक गयी. उस ने किसी प्रकार की असाधारण सी आवाज़ सुनी थी......जो नरकूलों मे पैदा होने वाली सरसराहट से बहुत भिन्न थी.
आवाज़ फिर आई. और उसकी आँखें हैरत से फैल गयीं. करीब ही कहीं कोई दबी दबी आवाज़ मे रो रहा था. आवाज़ निश्चित किसी लड़की की थी. सिम्मी ने टॉर्च जला ली. रोने वाली सामने ही थी. सिम्मी झपट कर उसके निकट पहुची.
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Re: प्यासा समुन्दर
वो घुटनों मे सर दिए बैठी थी......और उसके सुनहरे बाल नीचे ढलक आए थे. सिम्मी उसे हैरत से देखती रही. उसके शरीर पर नीले रंग का लिबास था.....और उसपर गोलडेन कशीदाकारी थी. दोनों हाथ कंधों तक खुले थे. सिम्मी की हैरत का सब से बड़ा कारण उसके हाथ ही थे. क्योंकि उनका रंग भी सुनहरा था. वो सिम्मी की उपस्थिति से बेख़बर उसी तरह घुटनों मे सर दिए सिसकियाँ लेती रही.
"ए.......तुम क्यों रो रही हो......इधर...मेरी तरफ देखो...." सिम्मी ने बचकाना ढंग से कहा. वो अचानक चौंक पड़ी. उसने सर उठा कर सिम्मी की तरफ देखा. लेकिन टॉर्च की रौशनी मे उसकी आँखें चौन्धिया गयीं. और दूसरी तरफ सिम्मी के हाथ से टॉर्च भी गिर गयी क्योंकि वो तो सोने की औरत थी.......और उसके होन्ट बिकुल सुर्ख थे. उसकी आँखें हीरे जवाहरात की तरह जगमगा रही थीं.
सिम्मी दंग रह गयी. लेकिन सिसकियाँ वो अब भी सुन रही थी. उसने कुछ ही पलों मे बहुत कुछ सोच डाला. वो चुडैलों और भूतों को नहीं मानती थी.......लेकिन इस समय उसे भूतों और चुडैलों की वो सारी कहानियाँ याद आने लगी थिं जो उसने बचपन मे सुनी थी.
लेकिन जब वो केवल सिसकियाँ ही सुनती रही और उस अवधि मे उसे कोई हानि नहीं पहुची तो उसने दिल कड़ा कर के फिर टॉर्च उठाई और उसे जलाया. सुनहरी लड़की ने फिर अपना सर घुटनों पर रख लिया और लगातार रोए जेया रही थी.
सिम्मी उसके निकट बैठ गयी.
"तुम कौन हो........मुझे बताओ. क्यों रो रही हो?" उसने कपकापाती हुई आवाज़ मे पूछा.
लड़की ने फिर सर उठाया. लेकिन उसने जो कुछ भी कहा सिम्मी की समझ मे नहीं आ सका. वैसे उसकी आवाज़ क्या थी.......घंटियाँ सी बज उठी थिं. सिम्मी के कान उसकी आवाज़ की मिठास मे खो गये.
तभी लड़की ने अपना लबादा(लंबा सा ड्रेस) उपर सरका कर उसे अपनी दाहिनी पिंडली दिखाई जिस से खून बह रहा था. वो लड़की तो सर से पैर तक गोल्डेन थी लेकिन खून लाल ही था जैसा सब का होता है.
"ठहरो......ठहरो......शायद तुम ज़ख़्मी हो..." सिम्मी ने कहा और घुटनों के बाल बैठ कर दुपट्टे के आँचल से ज़ख़्म सॉफ करती हुई बोली....."तुम मेरे घर चलो मैं इसकी ड्रेसिंग कर दूँगी."
लेकिन लड़की कुछ ना बोली.
"चलो...." सिम्मी ने फिर कहा.
"लड़की ने भी कुछ कहा लेकिन सिम्मी समझ ना सकी. पता नहीं वो कौन सी भाषा बोल रही थी. सिम्मी ने सोचा......अँग्रेज़ी, फ्रेंच और जर्मन भाषा मे भी ट्राई की जाए. ये तीनो भाषाएँ सिम्मी अच्छी तरह बोल और समझ सकती थी. हालाकी उसकी शिक्षा घर पर ही हुई थी लेकिन ठोस हुई थी.
उसने तीनों भाषाओं मे बारी बारी से अपनी बात समझाने की कोशिश की लेकिन नाकाम रही. क्योंकि ये तीनों भाषा भी शायद उसके लिए नयी ही थी.
अंत मे तक हार कर सिम्मी ने इशारों का सहारा लेना चाहा और उस से कहा की उसके साथ घर चले.......जहाँ वो उसके ज़ख़्मों की ड्रेसिंग कर देगी.
सुनहरी लड़की की आँखों से डर झाँकने लगा. उसने इनकार मे सर हिला दिया. अंत मे सिम्मी ने अपना दुपट्टा फाड़ कर वहीं ज़ख़्म की ड्रेसिंग शुरू कर दी. जब वो ड्रेसिंग शुरू कर दी तो लड़की ने उसके हाथों को चूमा और उसे अपने सर पर रख लिया. फिर झाड़ियों की तरफ कुछ ऐसे इशारे किए जैसे कह रही हो की टॉर्च लेकर उधर चलो.
सिम्मी का डर भाग चुका था.......और वो उस लड़की केलिए अपने दिल की गहराइयों मे प्यार महसूस करने लगी थी. इसलिए वो टॉर्च जला कर उसके साथ चलने लगी. लड़की लंगड़ाती हुई चल रही थी. सिम्मी ने सहारे केलिए अपना बाज़ू पेश किया जो स्वीकार कर लिया गया.
लड़की उसे एक ऐसी जगह लाई जहाँ झाड़ियों के बीच थोड़ी सी सॉफ जगह थी. यहाँ सिम्मी को एक बहुत बड़ा गोला दिखाई दिया......जो किसी मेटल का बना हुआ था. उसका रेडियस ९-१० फीट से किसी तरह कम नहीं रहा होगा. उसमे चारों तरफ खिड़कियाँ सी दिखाई दे रही तीन. लड़की ने उसे इशारे से बताया की वो उसी तरह टॉर्च जला कर खड़ी रहे. सिम्मी हैरत से उस गोले को देख रही थी. सुनहरी लड़की ने गोले पर एक जगह हाथ रखा और अचानक एक हल्की सी आवाज़ के साथ उस का उपरी भाग खुल गया. फिर लड़की ने सिम्मी के हाथ से टॉर्च लेकर पैदा होने वाली स्पेस मे रौशनी डाली. उसके भीतर निश्चित कोई मेकॅनिज्म थी लड़की के इशारे पर उसने टॉर्च अपने हाथ मे ले लिया.......और उसे रौशनी दिखती रही.......और वो उसी गैप मे दोनों हाथ डाले हुए मशीन के पुरज़ों को शायद ठीक करती रही. कुछ ही देर मे वो मशीन हल्की आवाज़ के साथ चल पड़ी.
ये आवाज़ इतनी हल्की थी की जितनी किसी बिजली के पंखे की हो सकती है.
इसके बाद उसने सिम्मी को अपने गले से लगा कर उके माथे पर चुंबन दिया और फिर उसी गोले के भीतर जा बैठी. सिम्मी की टॉर्च अब भी जल रही थी.
सुनहरी लड़की अब काग़ज़ के एक टुकड़े पर सोने की एक पतली सी छड से कुच्छ लिख रही थी. लेकिन वो कैसा सोना था जिसका सुनहरा रंग काग़ज़ पर भी उतर सकता था. सिम्मी को सुनहरी लिखावट दिखाई दी. लेकिन दूरी अधिक होने के कारण वो उसे पढ़ ना सकी. सुनहरी लड़की ने काग़ज़ उसके हाथ मे थमा दिया और दूर हट जाने का इशारा करते हुए गोले की वो खिड़की बंद कर ली जिस से वो घुसी थी.
सिम्मी बड़ी तेज़ी से पीछे हटी........और टॉर्च की रौशनी गोले के साथ ही उपर उठती चली गयी. जब गोले ने ज़मीन छोड़ी थी तब हवा का इतना ज़बरदस्त झोंका सिम्मी के शरीर से टकराया था की उसे अपने कदम जमाना कठिन हो गया था.
वो हैरत से मुंह फाडे उन आडी तिरछी सुनहरी लकीरों को देखती रही. फिर अगर पानी मे कुछ गिरने की आवाज़ से ना चौंकती तो ना जाने कब तक उसकी ये बेसुधी बनी ही रहती.
अब वो बहुत तेज़ी से घर की तरफ जा रही थी. घर पहुंच कर वो सीधी अपने बेडरूम मे चली गयी. और फिर लगभग आधे घंटे तक उसकी चेतना सामान्य नहीं हुई. वो अपने बेड पर पड़ी हाँफ रही थी. साँस इतनी तेज़ी से चल रही थी जैसे मीलो का सफ़र लगातार दौड़ती हुई तय की हो.
धीरे धीरे उड़की हालत सामान्य होती गयी. कुछ देर बाद उसने फिर उस काग़ज़ के टुकड़े पर निगाह दौड़ाई. लेकिन अब वो बिल्कुल साफ था. सुनहरी लकीरें गायब थीं. उसने टेबल लैम्प ऑफ कर दिया......इस आशा में की शायद फॉस्फोरस की तरह अंधेरे ही मे वो साफ दिखाई दें. लेकिन इस बार अंधेरा भी उन्हें नहीं चमका सका. काग़ज़ एकदम साफ था.
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Re: प्यासा समुन्दर
इमरान ने बेड पर पड़े ही पड़े एक लंबी अंगड़ाई ली और फिर भर्रायी हुई आवाज़ मे चीखा...."अबे ओ सुलेमान के बच्चे.....अख़बार....?"
सुलेमान किचेन मे था.....इसलिए ज़रूरी नहीं था की पहली ही आवाज़ मे दौड़ा चला आता. दूसरी या तीसरी आवाज़ पर उसके कान पर जूं रेंगी......और वो हाथ झुलाता हुआ कमरे मे प्रवेश किया.
"हांएँ......अबे मैने अख़बार माँगा था....." इमरान आँखें निकाल कर दहाड़ा.
"जी हां.....मेरे विचार से आप ने अख़बार ही माँगा था." उसने बड़े आराम से उत्तर दिया.
"फिर कहाँ है अख़बार..."
"स्टोर मे तेल नहीं था.....कोएला जलाने पड़े.....और कोयला खुद से तो सुलगता नहीं...."
"क्या मतलब...?"
"अख़बार जला कर कोयला सुलगाया......और अब चाय तैयार है."
"अबे.....आज का भी जला दिया?"
"आज और कल से क्या अंतर पड़ता है साहब? अख़बार तो अख़बार है....."
"होश मा है या नहीं?"
"इस समय तो मैं होश मे हूँ.....लेकिन पिछली रात मैने मार्टिनी पी थी......और आप का नीला सूट पहन कर गया था."
"अबे ओ उल्लू के भतीजे.......मैं तेरी गर्दन तोड़ दूँगा. तुझे इतने पैसे कहाँ से मिले थे की तू मार्टिनी पिया था?"
"उपर वाला देता है साहब......आप की जेब से एक हज़ार के नोट मिले थे....."
"अर्रे सत्यानाश हो.....मैं तुझे डिसमिस कर दूँगा."
"सोचा था की निकाल लूँ और मार्टिनी पियूं लेकिन आप के नीले सूट पर आयरन नहीं था......इसलिए केवल सपने देख कर रह गया."
"बहुत अच्छा किया तू ने." इमरान एका-एक खुश होकर कहा. "वरना तुम्हारे कंठ मे खराश पड जाती. पीना ही है तो शैम्पीयन पिया कर...." फिर कुछ याद आने पर चीखा..."अर्रे अख़बार...."
"मेरी समझ से वो सुरक्षित है." सुलेमान ने कुछ सोचते हुए कहा.
"अबे आज कल तू शरीफ आदमियों की तरह बातें क्यों करने लगा है?"
"मजबूरी है साहब......आज कल शराफ़त ही का ज़माना है."
"अख़बार..."
सुलेमान चला गया......और इमरान ने आँखें बंद कर के एक जमहाई ली और फिर मुंह चलाने लगा.
अख़बार आ गया. उसने लेटे ही लेटे पहले पेज पर निगाह डाली......और फिर इस तरह बौखला कर उठ बैठा जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया हो.
वो हेडिन्ग ही बौखला देने वाली थी.
"इंटेलिजेन्स ब्यूरो के डायरेक्टर जेनेरल पर जानलेवा हमला...."
इंटेलिजेन्स ब्यूरो के डायरेक्टर जेनेरल खुद इमरान के डैडी थे. इमरान ने बड़ी तेज़ी से खबर पढ़ डाली.....
१४ सितम्बर. रात के पिछले हिस्से मे कुछ अग्यात व्यक्ति मि. रहमान साहब की कोठी मे घुसे. उन्होने सब से पहले दोनो पहरेदारों को बेबस कर दिया. कोठी के कम्पाउन्ड मे दो रखवाली के कुत्ते थे. पता नहीं उन्हें किस प्रकार ख़तम कर दिया गया.....की आस पास वालों या कोठी के निवासियों ने उसका शोर नहीं सुना. रहमान साहब अपने बेडरूम मे सो रहे थे. अचानक उनकी आँखें खुल गयीं. उन्हें चार नकाब पोश दिखाई दिए........उन मे से एक रहमान साहब की तरफ रिवॉल्वर ताने खड़ा था.....और उसके साथी कमरे की चीज़ें उलट पलट कर रहे थे. रहमान साहब से कहा गया की खामोशी से पड़े रहें.....वरना उनकी हत्या कर दी जाएगी. रहमान साहब कुछ देर तो खामोशी से सिचुयेशन को समझते रहे. फिर अचानक उन्होने खुद को बेड से नीचे गिरा दिया. उनकी निगरानी करने वाला शायद गाफिल हो गया था......या उनके इस तरह गिरने के कारण कुछ गाफिल हुआ......रहमान साहब ने लेटे लेटे ही उस पर छलाँग लगाई और उसे गिरा दिया और पलक झपकते उसका रिवॉल्वर छीन लिया. और फिर उस कमरे मे फायरों की आवाज़ें गूंजने लगीं.
आग्यत व्यक्तियों को भागना पडा......क्यों्कि कोठी के अन्य लोग भी जाग चुके थे.
यहाँ कोठी मे इमरान के आने की खबर फैल चुकी थी. वो पूरे एक साल बाद कोठी मे कदम रखने वाला था. वैसे तो अक्सर वो मेन गेट ही पर रुक कर चौकीदार से सब की हाल चाल मालूम कर लिया करता था. क्योंकि रहमान साहब के आदेश के अनुसार वो कम्पाउंड मे भी कदम नहीं रख सकता था.
लेकिन आज जबकि रहमान साहब की तरफ से अनुमति मिल चुकी थी और इमरान आ रहा था. उसकी कज़िन सिस्टर्स बाहरी फाटक पर ही उसकी प्रतीक्षा कर रही थीं. उन मे उसकी सग़ी बहन लड़ाकी सुरैया भी थी.....और उसने कुछ देर पहले ही अपने तेवर मे तीखापन पैदा करना शुरू कर दिया था. उसकी कज़िन सिस्टर्स उसे समझा रही थीं कि वो आज कोई झगड़े वाली बात ना करे.
वैसे इस समय स्वाभाविक ढंग से कोठी का वातावरण शांत ही होनी चाहिए थी.....क्योंकि पिछली रात ही रहमान साहब पर जानलेवा हमला हुआ था......और वो बाल बाल बचे थे.
लेकिन वो ठहरे इमरान के बाप. अर्थात इमरान उन्हीं का बेटा था जिसकी निगाह मे ज़िंदगी और मौत की कोई वैल्यू ही नहीं थी. उनका कठोरतम आदेश था की कोठी के वातावरण पर मातमी दशा ना दिखाई देने पाए. अगर किसी के भी चेहरे पर चिंता के भाव देखे गये तो उसकी अच्छी तरह खबर ली जाएगी.
यही कारण है की वो सब अगर खुशी और उल्लास से उछल कूद नहीं रहे थे तब भी ये प्रकट करने का प्रयास कर रहे थे की उन्होने रहमान साहब के आदेश को दिल से स्वीकार किया है.
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Re: प्यासा समुन्दर
जैसे ही इमरान की कार गेट पर पहुं्चि उसकी बहनें सामने आ गयीं......और इमरान के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं......क्योंकि उनमे से कोई भी चिंंतित या शोकाकुल नहीं दिखाई दे रही थीं.
सुरैया के चेहरे पर वही पुराना तीखापन दिखाई दे रहा था.
कज़िन सिस्टर्स ने उसे उपर से नीचे तक टटोलना शुरू कर दिया......जैसे देख रही हों की टूट फूट कर तो घर वापस नहीं आया.
"ऐ.....नहीं लाए अपनी दोगली जोरू को?" सुरैया ने चटकते हुए अंदाज़ मे पुछा.
"जोगली दोरू......" इमरान ने मूर्खों की तरह आँखें फाड़ कर दुहराया.
"हां.....वही सफेद परकटी." सुरैया आँखें चमका कर बोली. "जो अम्मा बी के सीने पर मूँग डालेगी...."
"अर्रे वो सफेद परकटी नहीं है.....उड सकती है........शेराजी की मादा...."
"रूशी के बारे मे कह रही है भाईजान." उसकी चचेरी बहन फ़रज़ाना उसकी टाई की गिरह ठीक करती हुई बोली.
"हाएँ....उसकी बात हो रही? लेकिन देखो........मैं अभी तुम सब से बातें करूँगा. पहले मुझे डैडी के पास जाने दो."
"आप वहाँ नहीं जा सकते..." सुरैया आँखें निकाल कर बोली. "उस से पहले आप को अम्मा बी की जूटियाँ खानी पड़ेंगी."
"ओह्ह...." इमरान एक लंबी साँस लेकर पेट पर हाथ फेरता हुआ बोला. अच्छा ही हुआ की मैं नाश्ता कर के नहीं आया......मगर सुरैया तुम अभी तक बूढ़ी नहीं हुई....मुझे हैरत है."
उसकी कज़िन्स हँसने लगीं. और वो उन्हें हटाता हुआ आगे बढ़ता चला गया. अम्मा बी बरामदे मे ही बैठी मिल गयीं.
"क्यों रे.....कम्बख़्त.....क्यों आया है?" वो फूट पड़ीं. उनकी आँखों से आँसू बह रहे थे और मुह से जली कटी बातें निकल रही थीं.
इमरान उनके पैरों के पास घुटनों के बल बैठ गया......और उनकी जूतियाँ पैरों से निकाल कर अपने सर पर रख ली.
"अम्मा बी....! मैं कैसे आता. आज भी डैडी की अनुमति लिए बिना नहीं आया."
"तुम दोनों एक जैसे हो...." अम्मा बी बोलीं..."दोनों संगदिल मेरे ही हिस्से मे आए थे."
इसी तरह वो दिल का गुबार निकालती रहीं और इमरान गिडगिडाता रहा. सुरैया को शायद उसकी कज़िन सिस्टर्स ने कम्पाउन्ड मे ही रोक लिया था. वरना ये सिलसिला लंबी अवधि तक जारी रहता.
किसी ना किसी तरह इमरान रहमान साहब तक पहुचा. वो अपने बेडरूम में टहल रहे थे......और उनके चेहरे पर चिंता के भाव बिल्कुल नहीं थे. वो किसी गहती सोच मे ज़रूर थे. इमरान को देख कर रुक गये....और फिर सुरैया की तरह ही उनके चेहरे पर भी तीखापन के भाव दिखाई देने लगे.
"तुम क्यों आए हो?" उन्होने गुर्रा कर पूछा.
"मम....मैं आपकी अनुमति......स...से...."
"ठीक हैं लेकिन क्यों आए हो?"
"मम....मैने सुबह अख़बार देखा था...."
"आवश्य देखा होगा.....फिर?"
"वो.....आप पर हमला...."
"हुं....मुझ पर हमला हुआ था....मगर मैं ज़िंदा हूँ."
"मैं आप को बधाई देने आया हूँ. " इमरान जल कर बोला.
"नहीं....तुम इसलिए आए हो की हमले का कारण मालूम कर सको.....वरना तुम्हें मुझ से कोई हमदर्दी नहीं है."
"अब इश्स मामले मे तो मैं बिल्कुल मजबूर हूँ डैडी...क्योंकि मेरे रागों मे आप ही का खून है."
"बॅस....जाओ...." रहमान साहब हाथ उठा कर बोले.
"मैं कारण जाने बिना नहीं जाउंगा डैडी..."
रहमान साहब ने बेल की तरफ हाथ बढ़ाया.
"रुकिये...." इमरान जल्दी से बोला. "मैं जा रहा हूँ. लेकिन कारण पता कर लूँगा..."
प्यास बुझाई नौकर से Running....कीमत वसूल Running....3-महाकाली ....1-- जथूराcomplete ....2-पोतेबाबाcomplete
बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
मगर आप जैसे दोस्त नसीब वालों को मिलते हैं!
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बन्धन
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दिल से दिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
तुफानो में साहिल बड़ी मुश्किल से मिलते हैं!
यूँ तो मिल जाता है हर कोई!
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