माया- एक अनोखी कहानी complete

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माया- एक अनोखी कहानी complete

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माया- एक अनोखी कहानी

सूत्रपात
सन 1950, चांदीपुर गांव…

पौ फटते ही उस जवान विधवा की नींद एक झटके के साथ खुली और वह अपनी हालत देखकर एकदम हक्की बक्की रह गई| वह बिल्कुल नंगी बिस्तर पर लेटी हुई थी, उसके कोमल अंगों में हल्का हल्का दर्द हो रहा था... मानो रात भर किसी ने उसके साथ सहवास किया हो|

उसने डरते-डरते अपनी दोनों टांगों के बीच के हिस्से को देखा और दंग रह गई!

उसका वह हिस्सा अब बिल्कुल साफ सुथरा था| उसके जघन के बलों का कोई नामोनिशान ही नहीं था... कमरे में वह बिलकुल अकेली थी पर एकदम नंगी... उसका दिमाग काम नहीं कर रहा था… फिर वह धीरे-धीरे याद करने की कोशिश करने लगी और फिर उसे याद आने लगा…

पति की मौत के बाद उसके ससुराल वालों ने उसे घर से निकाल दिया था| हालांकि इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी... गलती अगर थी तो सिर्फ उसकी किस्मत की; जो वह शादी के बाद इतनी जल्दी विधवा हो गई| यहां तक की गांव वालों के दबाव में आकर मायके में भी उसको जगह नहीं मिली|

अब लोगों का क्या है? जितने मुंह उतनी बातें... कुछ लोगों ने कहा यह लड़की मनहूस है... यह लड़की एक अपशकुन है... यहां तक की लोगों ने यह तक कह दिया कि यह एक डायन है- जो कि शादी के बाद इतनी जल्दी ही अपने पति को खा गई... इसलिए समाज के ठेकेदारों ने यह फैसला किया किस लड़की का गांव में रहना बिल्कुल वाजिब नहीं था... यह शायद अपना बुरा प्रभाव पूरे गांव में फैला देगी... इसीलिए अब तो उसका न कोई घर था और न ही कोई ठिकाना और वह पिछले दो दिनों से वह इधर उधर भटक रही थी...


स्टेशन से तो रेल गाड़ी आती जाती रहती थी, बस फिर क्या था? जो गाड़ी उसे सामनी दिखी थी वह उसमें चढ़ गई और पिछले दो दिनों तक वह इधर उधर भटक फिर रही थी...

आखिरकार वह इस गांव में आकर पहुंची… इस गांव का नाम था चांदीपुर|

यहाँ वह क्या करे? कहां जाए कहां? किस से मदद माँगे? सर छुपाने के लिए कहाँ जगह ढूँढे? इस बात का कोई आता पता नही था...

कुछ ही दूर पर उसे एक मंदिर दिखा, जहां शायद आज कोई भंडारा लगा हुआ था| पिछले दो दिनों से उसको ठीक से खाना भी नहीं नसीब हुआ था... बहुत तेज भूख लग रही थी उसे, इसलिए वह मंदिर के पास जहां लोग खाना खाने के लिए बैठे हुए थे, वह वहां जाकर उनके साथ ही बैठ गई| आखिरकार सुबह सुबह उसको पेट भर के खाने को मिल गया|

भंडारा खत्म हो गया... भीड़ छठ गई लोगबाग अपने अपने रास्ते चले गए| लेकिन विधवा का कोई ठिकाना नहीं था ... इसलिए वह मंदिर के पास ही बैठी रही| सुबह से दोपहर हुई... दोपहर से शाम और फिर रात हो गई... विधवा वहीं बसुध सी होकर बैठी हुई थी अब तो उसके आंसू भी सूख चुके थे...

तब एक औरत उसके पास आई और उसने पूछा, “क्या बात है बहन? मैंने गौर किया कि तुम सुबह से यहां बैठी हुई हो, आखिर बात क्या है?”

विधवा ने अपना सर उठाकर उसको देखा, यह औरत उसे दस या बारह साल बड़ी होगी| उसने काले रंग की एक साड़ी पहन रखी थी जिसमें लाल रंग का मोटा सा बॉर्डर था| उसके बाल एक बड़े से जुड़े में सर के ऊपर बँधे हुए थे... उसमें शायद काली पीली और हल्के नीले रंग की गोटियों की माला बंधी हुई थी... वह काफी सेहतमंद दिख रही थी... विधवा ने सोचा कि शायद यह औरत कोई पुजारिन या साधिका होगी…

पिछले दो दिनों में किसी ने उससे कोई बात नहीं की थी| किसी ने उसका हाल चाल नहीं पूछा था… विधवा को लग रहा था कि मानो एक अरसा बीत गया हो किसी से बात किए हुए| इसलिए जब उस औरत ने उससे सवाल किया तो उसके आंसुओं का बांध टूट गया… उसने फूट फूट कर रो कर अपनी आपबीती सुनाई|

उस औरत को शायद विधवा पर तरस आ गया| उसने उसे गले से लगाकर दिलासा दिया और बोली, “कोई बात नहीं… कोई बात नहीं… मैं समझ सकती हूं कि तेरे ऊपर क्या बीती है; पर तू चिंता मत कर... तू मेरे घर चल... मैं वादा करती हूं कि मैं तुझे सहारा दिलवाउंगी| लेकिन आज तू मेरे साथ चल... तुझ जैसी जवान लड़की का इस तरह अकेले अकेले भटकते फिरना खतरे से खाली नहीं... चल बहन चल मेरे घर चल…”

उस औरत का घर गांव से थोड़ी ही दूर एक जंगल के पास वीराने में था| जहां वह अकेली रहती थी|

घर पहुंचने के बाद उस औरत ने उसे नए कपड़े दिए… सिर्फ एक की साड़ी, ब्लाउज पेटीकोट ना ही अंतर्वास और बोली, “जा बहन, जा कर नहा ले और यह साड़ी पहन ले…”

“लेकिन यह साड़ी तो रंगीन है, मैं विधवा यह साड़ी कैसे पहन सकती हूं?”

“कोई बात नहीं| यहां कोई नहीं देखेगा... नहाने के बाद अपने कपड़े धो लेना और सूखने को टाँग देना मैंने कहा था मुझ पर भरोसा करो मैं तेरी मदद करूंगी...”

उस घर में गुसलखाने के नाम पर एक बिना छत की चारदीवारी ही थी| लेकिन उस पर एक बाँस का दरवाजा ज़रूर था| घर के आंगन में कुएं से पानी भरकर वह नहाई... नहाते वक़्त ना जाने क्यों उसे लग रहा था कि कोई उसे देख रहा है... लेकिन उसने वहम मान कर अपने इस एहसास को नज़रअंदाज़ किया| अच्छी तरह से नहाने के बाद उसने अपने कपड़े धोए फिर अपने बालों को खुला ही रख छोड़कर वह वापस कमरे में आई|

रात काफी हो गई थी इसलिए उस औरत ने खाना लगा दिया था| विधवा भूखी थी, प्यासी थी इसलिए उसने तनिक भी देर नहीं की वह भी उस औरत के साथ बैठकर खाना खाने लगी| यह बिल्कुल सीधा सादा खाना था, दाल चावल और गाजर मटर पत्ता गोभी की एक सब्जी... लेकिन उसे यह खाना किसी दावत से कम नहीं लग रहा था| उसने गौर किया कि वह औरत बिल्कुल ठुस- ठुस कर एक जाहिल की तरह खा रही थी... न जाने क्यों कहीं से शराब की बू भी आ रही थी... कहीं इस औरत ने पी तो नही रखी हो?

इतने में भी उसने गौर किया कि उसे बड़ी जोरों की नींद आने लगी थी, आखिर इन दो दिनों की थकावट और इतने बड़े मानसिक तनाव के बाद ना जाने कहाँ कहाँ वह भटकती फिर रही थी... आज के दिन उसे दो जून भर पेट खाना मिला था... अब उसका शरीर जवाब दे रहा था… या फिर खाने में कोई नशीली चीज़ मिली हुई थी?

खाना खत्म करने के बाद वह बाहर से किसी तरह जब हाथ धोकर कमरे में दाखिल हो रही थी, तब वह डगमगाने लगी और एकदम गिरने को हुई... उस औरत ने दौड़कर आ करके उसे सहारा दिया और धीरे-धीरे उसको बिस्तर पर लेटा दिया और फिर बड़े प्यार से मुस्कुराती हुई उसके माथे, बालों और उसके गालों को सहलाने लगी... फिर उसे लगा कि वह औरत शायद आँचल हटा कर उसकी साड़ी ढीली कर रही है... लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही थी... शायद उस पर बेहोशी छा रही थी| उसके बाद कुछ देर के लिए उसकी आंखों के आगे बिल्कुल अंधेरा छा गया...

थोड़ी देर बाद उसने हल्के से अपनी आंखें खोली और न जाने क्यों उसे लग रहा था अब वह बिल्कुल नंगी लेटी हुई है... कमरे में सिर्फ मिट्टी का एक दिया जल रहा था उसकी रोशनी में और उसने अपनी धुंधली नज़रों से उसने देखा वह औरत उसके सामने खड़ी थी... वह भी बिल्कुल नंगी है उसके बाल खुले हुए थे... उसकी आंखें लाल और बड़ी-बड़ी हो रखी थी उसके हाथ में एक उस्तरा था... उसके बाद उसे कुछ नहीं याद…

अब उस दिन सुबह उस विधवा को जब होश आया तो उसने देखा कि वह बिल्कुल नंगी है... उसका यौनंग हल्का हल्का दुख रहा है... उसके बदन पर अगर कुछ था तो सिर्फ उसका चांदी का लॉकेट- जिस पर उस का नाम लिखा हुआ था- और इसे बचपन से उसने अपने गले में पहन रखा था…

अचानक उसने उस औरत को कमरे में दाखिल होते हुए देखा| वह औरत अपनी पुरानी वेश भूषा में थी और वह मुस्कुरा रही थी|

उसने अपनी जीभ से अपने सूखे होठों को चाटा... तभी विधवा ने गौर किया कि इस औरत की जीभ बीच में से कटी हुई और दो भागों में बटी हुई थी... बिल्कुल सांपों की तरह...

डरी डरी फटी फटी सी आंखों उसने उस औरत से नज़रें मिलाई…

उसने कहा, “अब तुझे किसी बात का डर नहीं है बहन, मैंने तुझे कहा था ना कि मैं तेरी मदद करूंगी? मेरी बातों का यकीन कर... मैं एक अच्छे से घर में तेरे रहने खाने का इंतजाम कर दूंगी... लेकिन मैं जो तेरी इतनी मदद कर रही हूं; इसके बदले मुझे दो चीजों की जरूरत है- जिसमें से एक मुझे कल रात को ही मिल गया और दूसरा उधार रहा... वह मैं तुझे बाद में- वक़्त आने पर- बताऊंगी…”
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अध्याय १
सन 1972, चांदीपुर गांव… सूत्रपात के बाइस साल बाद

'अरे बाप रे! मुझे तो मालूम भी नही था कि वैधजी के घर से आते आते इतनी देर हो जाएगी| ', मैने सोचा, 'एक तो उनके घर मरीज़ों की इतनी भीड़ और उसके बाद ऐसी ज़ोरों की बारिश और कड़ाके की बिजली का गिरना| मुझे जल्द से जल्द घर पहुँचना ही होगा| छाया मौसी का मेरे बारे में सोच-सोच कर बुरा हाल हो रहा होगा|'

मैं वैध जी के यहाँ से छाया मौसी के लिए उनके जोड़ों के दर्द की दवाईयाँ ले कर उनके घर से लगे दवाखने से बाहर निकली ही थी कि बारीश शुरू हो गई| शाम के वक़्त से ही आसमान में काले घने बादल छाए हुए थे, छाया मौसी ने मुझे बार बार कहा था कि, “माया, मेरी बच्ची, एक छाता ले कर जा... बारिश आने वाली है... भीग जाएगी... तेरे बदन से तेरे कपड़े चिपक जाएँगे और आते जाते लोग तुझे घूर घूर कर देखेंगे... अब तू बड़ी हो गई है, थोड़ा तो बकिफ़ हो ले...”

लेकिन मैं कहाँ सुननेवाली थी? सो अब भुगत रही थी अपनी करनी का फल|

अच्छा हुआ था की बारीश की वजह से रास्ते में ज़्यादा लोग नही थे, बाज़ार भी लगभह खाली ही था, ज़्यादातर दुकानों में दुकानदार ही थे, खरीदारों की कोई भीड़ नहीं थी| बारिश से बचने के लिए मैं एक दुकान के छज्जे के नीचे खड़ी हुई थी... यह गाँव के सबसे बड़े व्यापारी की किराने की दुकान थी, इस दुकान में उनके कई नौकर चाकर काम किया करते थे, जैसा कि मैने कहा, फिलहाल बारिश की वजह से ग्राहकों का आना जाना नही था, इसलिए दुकान के नौकर चाकर खाली ही बैठे हुए थे और उनकी नज़रें मेरे उपर ही टिकी हुई थी| घूर रहे थे वे मुझे…

छाया मौसी ठीक ही कहतीं हैं| मैं अब बड़ी हो गई हूँ मुझे थोड़ा सम्भल कर रहना होगा| अब मैं बच्ची नही रही... साड़ी पहनने लगी हूँ... लोगों के सुना है कि लोग कहते हैं कि मैं बहुत सुंदर हूँ... दिन ब दिन मेरा रूप निखरता जा रहा है... चलती हूँ तो कूल्हे मटकते हैं... हर कदम पर मेरे सुडौल स्तन थिरक्ते हैं... जान पहचानवाले अब यह भी कहतें हैं कि मैं जवान हो गई हूँ|

दुकान के अंदर बैठे लड़कों को मै काफ़ी देर तक नज़र अंदाज़ करती रही, लेकिन कुछ देर रुकने के बाद ही मुझे लगने लगा की अब ज़्यादा देर यहाँ रुकना ठीक नही होगा| दुकान में बैठे लड़कों की बातें और उनकी हँसी की आवाज़ धीरे धीरे बढ़ रही थी और यह बारिश है कि रुकने का नाम ही नही ले रही थी|

आख़िरकार मैने फ़ैसला किया, भीगती हूँ तो भीग जाने दो| मुझे अब घर की तरफ निकलना ही पड़ेगा|
बस! मैं एक झटके से वहाँ से निकल पड़ी|

पर मैने गौर किया की मेरे वहाँ से निकलते ही जैसे दुकान में बैठे वह दो लड़के शायद मुझे छेड़ने के लिए निराशा की आहें भरने लगे| हाँ, लोग ठीक ही कहते हैं, मैं जवान हो गई हूँ|

आसमान में मानो बादल फट पड़े थे, तेज़ बिजली कौंध रही थी, बादल भी शायद अपनी पूरी ताक़त से गरज़ रहे थे… काफ़ी रात हो चुकी थी… मेरे आगे घना अंधेरा था... पर मैं तेज़ कदमों से घर की तरफ बढ़ने लगी| मैं भीग कर जड़ बन गई थी... मुझे मालूम था की छाया मौसी घर के दरवाज़े पर ही खड़ी हो कर मेरा रास्ता देख रही होगी और मैं जानती हूँ कि आज घर में मुझे छाया मौसी से डाँट पड़नेवाली है... क्या करूँ ग़लती तो मेरी ही है जो छाया मौसी के बार- बार कहने पर भी मैं छाता जो नही लेकर आई थी... लेकिन इतनी तेज़ बारीश में छाता किसी काम का नही आता और मुझे उस दिन जल्दी से जल्दी घर पहुँचना था क्योंकि उस दिन माँठाकुराइन जो हमारे घर आने वाली थी|

क्रमश:

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Re: माया- एक अनोखी कहानी

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अध्याय २

मेरे घर पहुंचते-पहुंचते बारिश रुक चुकी थी लेकिन मैं तो पूरी तरह भीग गई थी, इसलिए जैसा मैने सोचा था वैसा ही हुआ| घर के दरवाज़े की चौखट पर छाया मौसी खड़ी- खड़ी मेरा रास्ता देख रही थी| बारिश की वजह से बिजली भी गुल थी इसलिए छाया मौसी ने हर कमरे में यहां तक कि गुसलखाने में भी मोमबत्ती जला कर रखी थी|

घर पहुँचते ही उन्होने मुझे डांटा| पर मैने उनकी बातों का बुरा नही माना क्योंकि मैं जानती हूँ, यह सब उनका प्यार है मेरे लिए| इसलिए मैं सिर्फ़ सिर झुकाए, उनकी फटकार सुनती रही|

फिर मैने कहा, “मौसी, वैधजी ने दवाइयाँ दी हैं...”

छाया मौसी अभी भी बहुत गर्म थी मेरे उपर, वह बोलीं, “वह वैध सिर्फ़ दवाइयाँ ही देता रहेगा और जब भी तू उसके पास जाती है, वह तेरे सिर पर हाथ फेरेगा और तेरी चोटी को अपनी दो उंगिलयों और अंगूठे से मल मल कर तेरे से बातें करेगा...”, मौसी को यह अच्छा नही लगता था की वैधजी जैसे प्रौढ़ व्यक्ति मेरे बालों को छुएँ...

“पर मौसी आज तो मैं जूड़ा बना कर गई थी…”, मैं मूह दबाकर हंस दी|

छाया मौसी को यह कैसे बताऊं कि आज भी वैधजी ने मेरे सर पर खूब हाथ फेरा और उन्होंने मेरा जुड़ा खूब दबा दबा कर देखा| पहले की तरह आज भी उनकी निगाहें मेरी छाती पर ही टिकी थी… जब वैध जी ऐसा करते थे तब न जाने क्यों मुझे अच्छा भी लगता था और एक अजीब तरह की गुदगुदी होती थी मेरे बदन में... खास कर पेट के निचले हिस्से में... जब लोग बाग राह चलते मुझे घूरते हैं न जाने क्यों मुझे थोड़ा थोड़ा अजीब सा लगता है पर अच्छा भी लगता है क्योंकि निगाहें मुझ पर पड़ रही है... आख़िर वे मुझ पर ध्यान भी दे रहे हैं...

छाया मौसी मेरे ऐसे जवाब की उम्मीद नही कर रही थी, इसलिए वह जैसे भौंचक्की सी रह गई, फिर थोड़ा संभाल कर वह बोली, “ठीक है- ठीक है- अब जा करके नहा ले, अपने बदन से बारिश के पानी को धो डाल| इस तरह से बारिश में भी कराना सेहत के लिए अच्छा नहीं होता अगर तू भी बीमार पड़ गई तो क्या होगा, मैं तेरे लिए नए कपड़े निकाल कर रखती हूं… माँठाकुराइन आती ही होंगी… अब शायद उनकी दी हुई दवाई और दुआयों से मेरे इस जोड़ों के दर्द का कुछ इलाज हो सके|”

मैंने सोचा रात काफ़ी हो चुकी है और उपर से इतनी भारी बारिश और कड़कती हुई बिजली; ऐसे में माँठाकुराइन कैसे आएंगी? आखिरकार यह औरत है कौन? मैंने तो पहले कभी इनको नही देखा था, बस छाया मौसी इनके बारे में खूब बातें किया करती थी… क्यों छाया मौसी इतना मानती हैं इस औरत को? आखिर क्या है इस औरत का रहस्य?

मैं ऐसा सोच ही रही थी कि छाया मौसी ने कहा, “अब खड़ी खड़ी सोच क्या रही है, लड़की? जा जाकर नहा ले...”, फिर उन्होने बड़े प्यार से मेरे से कहा, “तेरे बाल सूख जाने के बाद मैं तेरे बालों में कंघी कर दूंगी|”

मेरे कपड़ों में जगह-जगह कीचड़ लग गए थे इसलिए मैं दूसरे कमरे में चली गई और वहां मैंने अपने सारे कपड़े उतार कर बिल्कुल नंगी हो गई| कमरे में खुंटें से तौलिया लटक रहा था उसे उठाकर मैं सीधे कमरे से लगे गुसलखाने में घुस गई|

आह! मौसम अच्छा है| आज मैं साबुन घिस घिस कर नहाउंगी| यही सोचते हुए मैं गुसलखाने में घुसी और अपने बालों को खोलकर वहां रखी जलती हुई मोमबत्ती की रोशनी में बाल्टी में भारी पानी को माग्गे में भर कर अपने बदन पर पानी डालने लगी…

हमारे गुसलखाने में दो दरवाजे थे उनमें से एक बाहर की तरफ खुलता था| बाहर के दरवाजे में दो तीन छेद थे, न जाने क्यों मुझे ऐसा लग रहा था कि बाहर से कोई मुझे देख रहा है... लेकिन मैंने इन बातों पर ध्यान नहीं दिया और मैं वैसे ही नंगी नहाती रही... अपने बदन पर साबुन घिस घिस कर…

छाया मौसी इतनी तकलीफ होने के बावजूद रसोई में घुसकर मछलियों के पकौड़े तल रही थी| सुबह जब मैं बाजार गई थी तो उन्होंने मुझसे इन मछलियों को लाने के लिए कहा था| जब घर लौटी थी तब मैंने देखा कि पड़ोस के मोहल्ले का लड़का आया हुआ है| उसने मौसी को एक थैला दिया जिसमें शायद कांच की कुछ बोतलें थी, मैंने पूछा भी था की “मौसी इस थैले में क्या है?”

लेकिन मौसी ने मुझे जवाब नहीं दिया वह बोली, “कुछ नहीं, माँठाकुराइन के लिए पीने के लिए...”, इतना कहकर उन्होंने मुझे घर के बाकी कामों में लगा दिया| आखिरकार शाम को तो मुझे उनकी दवाइयां लाने के लिए वैध जी के यहाँ जाना ही था... और आज घर में हमारी मेहमान- माँठाकुराइन आने वाली थीं|

***

नहाने के बाद मैं अपने कमरे में जा कर आईने के सामने वैसे ही बिल्कुल नंगी खड़ी होकर अपने आप को और अपनी जवानी को निहारती हुई अपने बालों को तौलिए से पोछ रही थी… मुझे इस तरह से आईने के सामने खड़ी होकर अपने आप को निहारना अच्छा लगता है, कमरे का दरवाजा बंद था; पर बाहर से आते हुई आवाज से मुझे पता चला कि घर में कोई आया है और यह एक औरत ही है|

मेरा अंदाजा सही था कि औरत कोई और नहीं, माँठाकुराइन ही है|

मैंने अपने बाल खुले ही रख छोड़े| छाया मौसी ने कहा था कि वह मेरे बालों में कंघी कर देगी और वैसे भी मुझे माँठाकुराइन जैसी गणमान्य महिला को प्रणाम भी करना था... बिल्कुल गाँव के तौर तरीकों जैसे...

जैसे तैसे मैंने मौसी के निकाले हुए कपड़े पहने| अजीब सी बात है मौसी ने मेरे लिए सिर्फ एक साड़ी, पेटिकोट और एक ब्लाउज ही निकाल कर रखा था और उन्होंने मेरे लिए अंतर्वास नहीं निकाले थे, शायद भूल गई होंगी| यह ब्लाउज मेरे लिए थोड़ी ओछी पड़ती थी और इसके हत्ते भी नहीं थे और इस ब्लाउज को पहनने से मेरे विकसित स्तनों का विपाटन काफी हद तक ज़ाहिर होता था…

मैं यह सब सोच रही थी कि बाहर से दूसरे कमरे से छाया मौसी ने मेरे को पुकारा, “अरी ओ माया? कहां रह गई जल्दी से बाहर आ लड़की...”

मैंने जैसे-तैसे जल्दी-जल्दी कपड़े पहने और बाहर वाले कमरे में चली गई जहां छाया मौसी और माँठाकुराइन पलंग पर पालती बैठी हुई बातें कर रहीं थी|

माँठाकुराइन की उम्र शायद 55 साल से ऊपर की थी| वह मौसी से उम्र में शायद दस बारह साल बढ़ी होंगी; लेकिन उनके बदन में एक अजीब सा कसाव था उनके बाल कच्चे-पक्के और करीब करीब कमर के नीचे तक लंबे थे और अभी भी काफी घने थे| उन्होंने अपने बालों को खुला छोड़ रखा था| अजीब सी बात है कि इतनी बारिश के बावजूद भी न जाने क्यों वह बिल्कुल भी भीगी नहीं | उनके बदन पर कोई ब्लाउज नहीं था, उन्होंने सिर्फ एक साड़ी पहन रखी थी साड़ी का रंग काला था और उस पर लाल रंग का चौड़ा बॉर्डर था| पलंग के पास जमीन पर एक बड़ा सा थैला रखा हुआ था जो माँठाकुराइन शायद अपने साथ लाई थी|

मौसी के सिखाए तौर-तरीकों के अनुसार मैं जमीन पर घुटनों के बल बैठ गई और अपना माथा जमीन पर टेक कर अपने खुले बालों को सामने की तरफ फैला दिया ताकि माँठाकुराइन मेरे बालों पर पैर रखकर मुझे आशीर्वाद दे सके|

क्रमश:

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Re: माया- एक अनोखी कहानी

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अध्याय ३

माँठाकुराइन ने अपने दोनों पैरों के तलवों को उनके सामने एक मखमली फुज्जीदार रेशमी शाल तरह फैले हुए मेरे बालों पर रखा है और उसके बाद वह फिर पैर उठाकर पालती मारकर बैठ गई|

मैंने उसी झुकी हुई हालत में कहा, “छाया मौसी आप भी अपने पैर मेरे बालों पर रखिए उसके बाद ही मैं अपना सर उठाऊंगी|”

“अरी! अरी! पागल लड़की यह तू क्या कह रही? मैं भला तेरे बालों में अपना पैर क्यों रखूंगी?”, मौसी हिचकिचा रही थी|

मैने कहा “तो क्या हुआ मौसी? तुम तो मेरी मौसी हो, मेरी बड़ी हो| मुझे आशीर्वाद नहीं दोगी?”

मौसी अपने जोड़ों के दर्द से लड़ती हुई अपनी टांगों को बिस्तर से उतार कर मेरे बालों पर रखा फिर वह भी वापस पालती मारकर बैठ गई|

उनके चरणो की धूल कों अपने सर में लेकर जैसे ही मैं उठ कर बैठी, मेरा आंचल सरक गया| मैं वह तंग ब्लाउज पहन रखा था और मेरे अच्छी तरह से विकसित सुडौल स्तन और उनका विपाटन माँठाकुराइन और छाया मौसी के सामने बिल्कुल बेपर्दा हो गया.... यहाँ तक कि मेरे ब्लाउज में से मेरी चुचियाँ भी साफ उभर आई थी, वह भी उन दोनों एक ही झलक में पक्का साफ़ देख लिया होगा... हाय दैया!

मैंने जैसे-तैसे जल्दी-जल्दी अपना आंचल संभाला उसके बाद अपने बालों को गर्दन के पास इकट्ठा करके एक जुड़ा बना कर हाथ बँधे उन दोनों औरतों के सामने खड़ी हो गई| आखिर मैंने अपने बड़ों की पैरों की धुल को अपने माथे पर लिया था, ऐसे कैसे मैं अपने बाल यूँ ही खुले छोड़ दूँ?

“अरी वाह, छाया!”, माँठाकुराइन ने मुझे काफ़ी देर नख से शीख तक निहारने के बाद बोली, “आज बहुत दिनों के बाद मैंने किसी लड़की के अध्-गीले बालों पर अपने पैर रखे हैं, मुझे बहुत अच्छा लगा…. यह लड़की तो गाँव के तौर तरीकों और तहज़ीबों से पूरी तरह वाकिफ़ लगती है... अच्छे संस्कार हैं इसके... मैं तो न जाने कब से ऐसी ही एक लड़की की तलाश में हूं जिसे मैं अपने पास अपनी रखैल (नौकरानी) बनाकर रखूं… कौन है यह? पहले तो तूने इस लड़की ज़िक्र नहीं किया था... फिर कौन है यह लड़की?”

छाया मौसी जैसे थोड़ा सोच में पड गई| उन्हे अपने जीवन की कुछ पुरानी बातें जो याद आ गई... उसने अपनी नज़रें माँठाकुराइन के चेहरे से हटा कर कमरे एक कोने में देखने लगी, जैसे की शायद अपनी पिछली ज़िंदगी की यादों के कुछ पन्नों पलट रहीं हों, फिर वह बोली, “हाँ, माँठाकुराइन, आपने सही कहा, मैं आप तो जानती ही हैं... शादी के कुछ ही दिनों बाद पति की मौत हो गई थी... फिर क्या था? ससुरालवालों ने मुझे घर से निकाल दिया, सिर्फ़ अठारह साल की थी मैं तब| मेरे मयके के गाँववालों ने भी मुझे घर में नही रहने दिया, उनका मानना थी की मैं शादी के बाद ही अपने पति को खा गई... शायद मैं इस दुनियाँ में अपशकुन बन कर आई हूँ... उस वक़्त अगर आप की सिफारिश की वजह से दुर्गापुरवाले बक्शी बाबू और उनकी पत्नी नें मुझे सहारा नही दिया होता; तो मैं ना जाने किस हाल में होती... आप तो जानती ही है कि यह उन्ही का घर है... उन्होने मुझे यहाँ बतौर नौकरानी के हिसाब से रहने को दिया...”

इतना कहते- कहते छाया मौसी की आँखों में आँसू आ गये| मैने अपना आंचल ठीक करके, उसके एक कोने से छाया मौसी के आँसू पोंछे और उनके एक कंधे पर अपना सिर रख कर और दूसरे हाथ से उनका पीठ सहला- सहला उन्हे दिलासा देती रही|

“यह बातें तो मैं जानती हूँ, छाया...”, माँठाकुराइन नें बड़े प्यार से मेरे चेहरे और बालों में हाथ फेरा और जैसे उन्होंने फिर से पुछा, “लेकिन तू ने अभी तक यह नही बताया कि आख़िर यह लड़की है कौन?... मैं जानती हूँ की बक्शी बाबू तेरे उपर बहुत मेहेरबान भी थे और यह लड़की तेरी बेटी की उम्र की तो ज़रूर है”, माँठाकुराइन के चेहरे पर एक टेढ़ी सी मुस्कान खिल उठी... माँठाकुराइन इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि मैं अपने पिता और छाया मौसी के अवैध संबंध की निशानी हूँ| मैंने उनकी इस बात का बुरा नहीं माना, क्योंकि ऐसी बातें मैं पहले भी सुन चुकी हूं| लोग सोचते थे की छाया मौसी मेरे पिताजी की रखैल थी| अब असलियत का तो मुझे नहीं पता लेकिन मैंने इस बारे में इतना सुन रखा था कि अब मुझे इन बातों का कोई असर ही नहीं होता था| चाय मौसी ने अभी तक कुछ नहीं बोला था, वह बस सिसकियाँ भर रही थी... लेकिन माँठाकुराइन मुद्दे पर अड़ी रहीं और बोलीं, “पर यह लड़की तेरी पैदा की हुई तो नही लगती है, बहुत ही सुंदर है यह, हाँ मेरे हिसाब से इसका रूप-रंग अभी और भी निखरेगा, लेकिन कौन है यह?... पड़ौस की रहनेवाली? या फिर इसे तू किसी पेड़ से तोड़ कर लाई है... आख़िर अगर तू अपना सारा कुछ बेच भी देगी तो भी इस तरह की लड़की को किसी गुलाम बाजार से खरीद के घर में अपनी रखैल बनाकर रखने के पैसे नहीं जुटा पाएगी तू… ऐसी खूबसूरत सी हूर को कहीं से उठा के तो नही ले कर आई?... आ- हा- हा- हा”, इतना कह कर माँठाकुराइन ठहाका मार कर हंस पड़ी…

यह सुन कर मैं थोड़ा चौंक सी गई, की माँठाकुराइन यह क्या कह रहीं हैं? लेनिक फिर मैने सोचा कि शायद माँठाकुराइन मज़ाक कर रही थीं, छाया मौसी का मिज़ाज ठीक करने के लिए, लेकिन वह मेरी तारीफ़ भी तो कर रही थी… और वैसे भी आख़िर किस लड़की को माँठाकुराइन जैसी एक प्रसिद्ध और सम्मानित औरत के मूह से अपनी तारीफ सुनना अच्छा नही लगेगा?

माँठाकुराइन ने गौर किया कि मैं अपनी ही तारीफ सुनकर शर्म से लाल हो रही थी...

अब छाया मौसी भी थोड़ा मुस्कुराके बोली, “हा- हा- हा... नही, नही यह बक्शीजी की ही बेटी है| बक्शीजी तो वैसे भी कारोबार के सिलसिले में गाँव से दूर शहर में रहा करते थे, यहाँ इस गाँव के इस तीन कमरों के दो मंज़िला मकान में बक्शी जी की विधवा माँ और उनकी बीवी के साथ मैं रह रही थी..." फिर उन्होंने मेरे उद्देश में कहा, "यह भी मेरी तरह अभागन है, माँठाकुराइन| बक्शीजी की माँ को तो एक दिन परलोक सिधारना ही था... बेचारी बुढ़िया चल बसी एक दिन... उसके बाद उसके बाद इसकी मां- बेचारी को न जाने कौन सी बीमारी हुई थी- वह भी चल बसी… अपनी बीवी की भी मौत के बाद बक्शीजी भी जैसे बेसुध से हो गये थे... वह इसे मेरी देख रेख में ही छोड़ कर शहर में अपना कारोबार सम्भलने लगे... पहले तो वह हर महीने गाँव का चक्कर लगते थे, पर धीरे-धीरे उनका यहाँ आना जाना जैसे रुक सा गया... लेकिन महीने के महीने घर चलाने के और इसकी देख रेख के पैसे वह बराबर भेजते रहते हैं... तीन साल की भी नही थी यह जब इसकी माँ भी चल बसी थी... तबसे मैं ने ही इसे पाल पोस कर बड़ा किया है...”

एक बार फिर मैने गौर किया कि माँठाकुराइन मुझे न ज़ाने किस इरादे से घुरे जा रही थी, मुझे ऐसा लग रहा था कि उनकी नज़र जैसे मेरे पुरे बदन को छु -छु कर परख रही थी... फिर वह मुस्कुराके बोली, “मैने ठीक ही समझा था, मैं इसको एक झलक देख कर ही समझ गई थी कि यह लड़की ज़रूर एक अच्छे और ऊँचे जात की है…”

"हां माँठाकुराइन! पर क्या करूं मुझे मैं तो अपने जोड़ों के दर्द से लाचार हूं, कुछ काम ही नहीं कर पाती कहां मैं इस लड़की की देखभाल करूंगी और कहा यह मेरे लिए रखैल की तरह खट-खट के मर रही है... एक दासी एक बांदी की तरह घर के सारे काम कर रही है यह...."

माँठाकुराइन सीधे मेरी आँखों में न जाने क्या देख रही थी? मैने अपनी नज़रें झुका ली|

माँठाकुराइन ने मुझ से कहा, “ज़रा पास आ तो री छोरी…”

क्रमश:

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rajababu
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Re: माया- एक अनोखी कहानी

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अध्याय ४

माँठाकुराइन जैसा कहा मैंने वैसे ही किया| मैं उनके बगल में जाकर बैठ गई| वह बड़े प्यार से मेरे सर पर मेरी पीठ पर अपने हाथों से मुझे सहलाती हुई बोली, “क्या उम्र है तेरी, छोरी?”
मैंने कहा, “जी उन्नीस साल...”

“तेरी नदिया का बांध कब टूटा?”

यह सुनकर मैं थोड़ा शर्मा गई क्योंकि मुझे पता था माँठाकुराइन यह जानना चाहती थी कि मेरा मासिक किस उम्र से शुरू हुआ है| मैंने मुस्कुराते हुए सर झुका कर कहा, “जी आज से करीब सात आठ साल पहले से ही शुरू हो गया था…”

“फिर तो सबकुछ ठीक ही चल रहा है… बड़ी हो गई है तू... तेरी जवानी का फल पक चुका है... बहुत सुंदर भी है तू... मुझे तू पसंद है| यह लड़की तो सयानी हो गई है; देख छाया… मैं तो हूं एक तांत्रिक औरत… मैं तेरे जोड़ों का दर्द ठीक कर दूंगी, लेकिन मेरी क्रिया कर्म के लिए मुझे ऐसी जवान कच्ची उम्र की लड़की की जरूरत थी| अच्छा हुआ यह लड़की तेरे साथ ही रहती है वरना मैं तो सोच रही थी कि बारिश की वजह से जितनी देर हो गई पता नहीं किसको बुला कर लाना पड़ेगा कौन मिलेगी इस वक्त? कहां मिलेगी? जैसा जैसा मैं कहूंगी क्या तू इस लड़की से वैसा वैसा करवाएगी, छाया?”

माँठाकुराइन वैध जी की तरह मेरा बड़ा सा जुड़ा दबा दबा कर देख रही थी मानो अंदाजा लगा रही हो कि मेरे बाल अगर खुल जाए तो कितने लंबे दिखेंगे| हालांकि जब मैंने उनको प्रणाम किस करने के लिए जमीन पर घुटने टेक कर बैठ के अपना माथा जमीन पर टिका कर अपने बालों को आगे की ओर फैला दिया था, तब शायद उन्होंने देखा होगा कि मेरे बाल बहुत ही लंबे हैं, पर उनका आशीर्वाद लेने के बाद ही मैं उठ कर खड़ी हो गई थी और अपने बालों को समेट कर जुड़े में बाँध लिया था तो शायद उन्होंने गौर नहीं किया होगा| कुछ भी हो उनका मुझे इस तरह से छूना मुझे बहुत ही अच्छा लग रहा था| क्या बड़ी हो जाने से, जवान हो जाने से, ऐसा ऐसा महसूस होता है?

“जैसा आप कहेंगी माँठाकुराइन, मैं वैसा ही करूंगी और मेरी यह लड़की; मेरी लाडली... मेरा सब कहा मानती है| इसके बारे में आप चिंता मत करना| आपको इससे जो भी काम करवाना हो आप एक बार कह कर तो देखो यह जरूर कर देगी| बोलिए क्या हुकुम है इसके लिए?”, छाया मौसी बोलीं| वह शायद किसी भी सूरत में अपने इस जोड़ों के दर्द का इलाज करवाना चाहती थीं|

“बड़ी खुशी की बात है और मेरी पसंद की मछलियां भी तो तू लाई होगी?”

“जी हां, माँठाकुराइन; मुझे मालूम है इसलिए सुबह ही मैंने आपका सामान मंगवा लिया था”

“अरे वाह! तो देर किस बात की है? अपनी इस लड़की से बोल रसोई में जा कर के हम तीनों के लिए पीने के लिए ले कर आए और साथ में मेरी पसन्द की मछलियाँ भी”

छाया मौसी ने बड़े प्यार से मेरी तरफ देखते हुए बोली, “जा माया जा, हम तीनों के लिए थाली में खाना परोस के ला| माफ करना बिटिया मैं तेरे से दासी बंदियों की तरह काम करवा रही हूं| कहां मैं तेरा ख्याल रखूंगी लेकिन इस कमबख्त जोड़ों के दर्द की वजह से मैं कोई काम ही नहीं कर पाती... और हां सुन रसोई में रखे थैले में एक शराब की बोतल होगी उसमें से एक गिलास में एक चौथाई शराब और बाकी पानी डालकर माँठाकुराइन के लिए लेकर आना और माँठाकुराइन की थाली मैं कम से कम चार मछलियां रखना|”

मैं उठ कर रसोई की तरफ़ जाने को हुई कि माँठाकुराइन बोलीं, “इसके बाल अभी भी गीले है| इससे कही कि अपने बॉल खोल दे| मौसम अच्छा नही है, मैं नही चाहती कि इसे ठंड लग जाए... मुझे अभी इसके बदन और जवानी की ज़रूरत होगी|”

छाया मौसी ने मुस्कुराकर बड़े प्यार से मेरे से कहा, “हां हां ठीक बिटिया- अपने बाल खोल दे”

मैं उठ कर खड़ी हुई अपने बालों बालों का जुड़ा खोलने लगी कि कितने में माँठाकुराइन बोली “नहीं, नहीं इसके बाल मैं खोलूँगी...”

मैं भी मुस्कुरा कर उनकी तरफ पीठ करके खड़ी हो गई| माँठाकुराइन ने बड़े प्यार से मेरे बाल खुले और उन्होंने मेरी पीठ पर उनको फैला दिया मेरे बाल लंबे हैं, मेरे नितंबों के नीचे तक पहुंचते हैं यह देख कर उनको जरूर अच्छा लगा होगा|

“वाह क्या काले घने लंबे रेशमी बाल है तेरे”, माँठाकुराइन ने तारीफ की|

उन्होंने मेरे बालों को सहलाया और फिर मेरे कूल्हे थपथपा कर बोली, “जा छोरी मेरे लिए कुछ पीने को लेकर आ...”

मेरे रसोई में चली गई|

इतने में माँठाकुराइन छाया मौसी से बोली, “बड़ी हो गई है यह लड़की... जवान हो गई है... सुंदर है... इसका खून गर्म है, क्या इरादा है? क्या सोच रखा है इसके बारे में? कोई अच्छा सा लड़का देखकर के इसकी शादी करवा दोगी क्या?”

“अब क्या बोलूं? मुझे एक न एक दिन मुझे इसे विदा तो करना ही होगा| इसके बाप का तो कुछ अता पता है ही नहीं... बस पैसे ही भेजता रहता है| इसकी शादी करवाने के लिए मुझे ही कुछ ना कुछ करना होगा|”, छाया मौसी ने कहा|

“तूने तो इस लड़की को बिल्कुल सांस्कारिक तौर से पाल पोस कर बड़ा किया है, लेकिन तूने इसको पुराने जमाने की रखैल तहज़ीब के बारे में नहीं बताया?”, माँठाकुराइन ने पूछा|

“लेकिन यह सब तो दासी बांदियों के लिए होता था... और मैने तो इस लड़की को अपनी बेटी की तरह पाला है... इस लिए हमारी इस बारें में कोई बात ही नही हुई...”, छाया मौसी बोलीं|

“अगर तूने इसकी शादी करा दी तो यह तो अपने ससुराल चली जाएगी... और तू तो बिल्कुल अकेली पड़ जाएगी| फिर तेरी देखभाल कौन करेगा? अभी घर में यह जवान लड़की है घर के सारे काम काज कर लेती है अच्छा होगा तो इसे अपने पास ही रख|”

“लेकिन ऐसे कैसे मैं इसे अपने पास रखूं? एक न एक दिन तो इसकी शादी करानी ही होगी”

“वह बाद की बात है लेकिन फिलहाल कुछ सालों तक तू इसे अपने पास ही रख…”

“यह आप क्या कह रही है माँठाकुराइन?” मौसी थोड़ा अचरज के साथ बोली|

“मैं ठीक ही कह रही हूं यह तेरे पास रहेगी मैं भी इसका इस्तेमाल कर सकूँगी| तंत्र मंत्र की क्रिया कलापों में जवान लड़कियों की यौन ऊर्जा की जरूरत पड़ती है| इस लड़की के अंदर मुझे लगता है वह सब कुछ है जो मुझे चाहिए... मैं आज ही इसे वश में कर दूंगी| जब तक तू चाहे है यह तेरी रखैल- तेरी दासी बनके रहेगी साथ में यह मेरी भी सेवा करेगी|”

“लेकिन माँठाकुराइन मैं ऐसा कैसे कर सकती हूं? आखिर यह किसी और की लड़की है मैं तो सिर्फ इसकी देखभाल करती हूं...”, छाया मौसी थोड़ा हिचकिचाई|

माँठाकुराइन ने छाया मौसी को डांटते हुए कहा, “बस बस ज्यादा हिचकिचा मत| तू मुझे ज़ुबान दे चुकी है और भूल गई मेरे कितने एहसान है तेरे ऊपर? बख्शी बाबू को मैंने ही राजी करवाया था तुझे घर में पनाह देने के लिए| अब तुझे अपना उधार चुकाने का वक़्त आ चुका है... तेरे पास यह जो लड़की है, मुझे चाहिए… और तुझे इस लड़की को मुझे देना ही होगा...”

क्रमश:
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