वापसी : गुलशन नंदा

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rajsharma
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Re: वापसी : गुलशन नंदा

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(^%$^-1rs((7)
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(शिद्द्त - सफ़र प्यार का ) ......(प्यार का अहसास ) ......(वापसी : गुलशन नंदा) ......(विधवा माँ के अनौखे लाल) ......(हसीनों का मेला वासना का रेला ) ......(ये प्यास है कि बुझती ही नही ) ...... (Thriller एक ही अंजाम ) ......(फरेब ) ......(लव स्टोरी / राजवंश running) ...... (दस जनवरी की रात ) ...... ( गदरायी लड़कियाँ Running)...... (ओह माय फ़किंग गॉड running) ...... (कुमकुम complete)......


साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
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Re: वापसी : गुलशन नंदा

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भीगी-भीगी धुंधली सी शाम थी। चारों ओर अंधेरा फैल रहा था। वातावरण सुगंधमयी था।

रशीद ओबेरॉय रॉयल पैलेस के लॉन में बैठा पूनम की प्रतीक्षा कर रहा था। उसके अभी तक ना आने से रशीद की बेचैनी बढ़ रही थी। बार-बार उसकी दृष्टि मुख्य प्रवेश द्वार तक पर जाती और लौट आती। फिर वह कलाई की घड़ी को देखने लगता। उसे यों अनुभव हो रहा था, जैसे उसकी घड़ी की सुइयाँ एक स्थान पर रुक गई हों…समय की गति थम गई हो।


घड़ी देखते ही उसे अपने हमशक्ल रणजीत की याद आ गई। यह रणजीत की ही घड़ी थी, जो पकड़े जाने के पहले उसकी कलाई पर बंधी थी। रणजीत के भेष में वह हर ऐसा प्रमाण अपने पास रखना चाहता था, जो उसे रणजीत ही सिद्ध कर सके। मानसिक बेचैनी को दूर करने के लिए उससे बैरे को बुलाकर एक लेमन जूस लाने का आर्डर दिया और मुँह में सिगरेट लगाकर उसे सुलगाने के लिए जेब से पूनम वाला लाइटर निकाला।

इससे पहले कि वह अपना लाइटर मुँह तक ले जाता, उसके चेहरे के पास एक दूसरी लौ धधक उठी। रशीद सिगरेट सुलगाने से पहले चौंककर मुड़ा और उस व्यक्ति को देखने लगा, जो जलता हुआ लाइटर उसकी ओर बढ़ाये मुस्कुरा रहा था। एक अजनबी को अपने पास देखकर रशीद को आश्चर्य हुआ।

“प्लीज!” अजनबी ने लाइटर की लौ उसकी सिगरेट से लगाते हुए कहा।

रशीद ने सिगरेट सुलगा लिया और ध्यान पूर्वक उस अजनबी को देखने लगा। उसकी रहस्यमयी मुस्कुराहट उसे उलझन में डाल रही थी।

“हेलो!” अजनबी ने मोटे और भद्दे होंठ हिले।

“हेलो!” रशीद ने उत्तर दिया।

“आपका हमारा टेस्ट मिलता है।” अजनबी ने कहा और जेब से 555 सिगरेट की डिबिया निकाल कर उसको दिखाते हुए बोला – “555 ब्रांड का सिगरेट।”

555 का संकेत सुनकर रशीद चौकन्ना हो गया। उसने सिर से पैर तक एक गहरी दृष्टि अजनबी पर डाली। शायद यही जॉन मिल्ज़ था। उसे झट मेजर सिंधु के ड्राइवर शाहबाद के शब्द याद आ गए – “जॉन मिल्ज़ एंग्लो इंडियन है। आपको हर रात ओबेरॉय पैलेस में मिलेगा।“

अजनबी रशीद के चेहरे पर अंकित उसके मनोभाव पढ़ते हुए धीरे से बोला – “बी इट इज़ मेजर… आई एम जॉन मिल्ज़। आप कैसे हैं?”

“थैंक यू…मैं बिल्कुल मजे में हूँ।” रशीद ने उसे सामने वाली कुर्सी पर बैठने का संकेत किया।

जॉन बैठ गया। इतने में बैरा रशीद के लिए लेमन जूस लेकर आ गया। जॉन ने उसी बैरे को दो बीयर लार्ज का आर्डर दिया और फिर बोला – “देखो सामने ब्लू रूम में रुखसाना मैम साहब डांस बनाता है। उसको बोलो, जॉन साहब इधर बैठा है…समझे!”

“समझ गया सर!” बैरी ने गर्दन छुपाकर कहा और चला गया।

रुखसाना का नाम सुनते ही रशीद को फिर शाहबाद ड्राइवर की बात याद आ गई – “उसके साथ एक लड़की रहती है रुखसाना, जिससे वह शादी करने वाला है।”

रशीद ने जॉन मिल्ज़ से घनिष्ठता जताते हुए पूछा – “शादी कब कर रहे हैं आप रुखसाना के साथ?”


“बहुत जल्द…पहले शादी बनाने का सोचा, तो जंग शुरू हो गया। गोला बारूद में लव करना अच्छा नहीं लगा। अब सीजफायर हुआ है, डिसाइड किया है, जल्दी बना डाले।”

“ओह आई सी! अच्छा, आपको कैसे पता चला कि मैं यहाँ हूँ?”

“हमको शाहबाज बोला। और फिर हेडक्वार्टर से आपका फोटो भी आया।” जॉन ने कहा और जेब से रशीद का फोटो निकालकर मेज पर रख दिया।

रशीद ने अपनी फोटो पर उचटती सी दृष्टि डाली और उसे झट जेब में रख देने का संकेत किया।

जॉन फोटो को फिर जेब में रखते हुए बोला – “इसी फोटो से हम आपको एकदम पहचान गया।”

“और क्या खबर आई है हेड क्वार्टर से?”

“यही कि आप की हर तरह की मदद की जाये।”

“मैं खुद हेडक्वार्टर से बात करना चाहता हूँ। खान से बात करना होगा।”

“हमारा सब बंदोबस्त है। कभी भी रात को 8:00 बजे से 10:00 बजे तक।”

“ओके तो कल रात को अरेंज कर दो।”

रशीद ने अभी बात पूरी भी बस की थी कि सामने रुखसाना आती हुई दिखाई थी। वे दोनों बातें करते-करते चुप हो गए। रुखसाना निकट आई, तो जॉन ने उठकर मुस्कुराते उसका स्वागत किया। रशीद भी उठ खड़ा हुआ। रुखसाना ने अपना हाथ जॉन के हाथ में दे दिया और जॉन ने उसका गाल चूम लिया, फिर जॉन ने उसका रशीद से कैप्टन रणजीत के रूप में परिचय कराया।

रुखसाना ने बड़े तपाके से रशीद से हाथ मिलाया और उसके गाल पर हल्का सा चुंबन देते हुए बोली – “वेलकम मेजर।”

रुखसाना की जबान से मेजर का शब्द सुनकर चुप आश्चर्य हुआ। उसने पलट कर जॉन को देखा। जॉन मुस्कुरा का अर्थ पूर्ण दृष्टि से रुखसाना को निहारता हुआ बोला – “नथिंग टू वरी मेजर…आवर पार्टनर!”

रशीद ने संतोष की सांस ली और तीनों एक साथ कुर्सियों पर बैठ गये। तभी बैरा बीयर की बोतलें और दो बड़े जार ले आया। रुखसाना ने बोतल उठाई और ढक्कन खोलकर दोनों गिलास में बीयर उड़ेलती हुई धीरे से बोली – “आप शौक नहीं फ़रमाते?”

“जी नहीं!”

“लेकिन शाहबाद तो कहता था आपने उस रात पी थी।”

“वह मजबूरी थी।”

“और आज अगर हम मजबूर करें तो?” उसने दोनों गिलास भरते हुए पूछा।

“जी नहीं…शुक्रिया! किसी के शौक पर मैं अपने उसूलों को कुर्बान नहीं कर सकता।”


“ओके.. मैं आपके उसूलों की कद्र करती हूँ। चीयर्स..!”

यह कहते हुए रुखसाना ने अपना गिलास जॉन के गिलास से टकराया पर धीरे-धीरे चुस्कियाँ भरने लगी।
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Re: वापसी : गुलशन नंदा

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रशीद अब इस लड़की की घनिष्ठता से ऊबने लगा था। उसकी आँखें फिर प्रवेश द्वार पर जम गई। पूनम अभी तक क्यों नहीं आई? प्रतिक्षण उसकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। उसके मस्तिष्क में कई शंकायें उठने लगी थी। व्याकुलता से वह कुर्सी पर दाएं-बाएं पहलू बदलने लगा।

“आपकी तबीयत तो ठीक है ना मेजर?” रुखसाना ने उसकी बेचैनी अनुभव करते हुए पूछा।

“हाँ हाँ…मैं बिल्कुल ठीक हूँ।” रशीद ने संभालते हुए उत्तर दिया।

“नहीं…लगता है, आप हमसे कुछ छुपा रहे हैं अथवा आपको हमारी कंपनी पसंद नहीं है या आप किसी और से मिलने के लिए बेकरार है।” रुखसाना ने बेधड़क कहा।

रशीद ने देखा, रुखसाना बियर के घूंट गले में उतारती जा रही थी, उसके चेहरे पर चंचलता बढ़ती जा रही थी। वह इस छोटी सी भेंट से ही खुल गई थी। रशीद अधिक देर तक उसकी चंचन नशीली आँखों का सामना नहीं कर सका और अपनी दृष्टि झुकाते बोला – “यू आर राइट रुखसाना!”

“रुखसाना नहीं, रूखी डियर!” जॉन ने बियर का चटकारा लेते हुए अपनी महबूबा का प्यार का नाम दोहराया।

“हाँ तो बताइए किससे मिलने के लिए बेकरार हैं आप?” रुखसाना ने मुस्कुराते हुए रशीद को फिर छेड़ा।

“अपनी महबूबा से।” रशीद ने भी मुस्कुरा कर उत्तर दिया।

“आपकी या रणजीत की?” पूछते हुए रुखसाना की दिल्लगी कुछ और बढ़ गई।

रशीद अचानक गंभीर हो गया और उसे चेतावनी देता हुआ बोला – “बेहतर होगा रुखसाना, अगर आप इन दो नामों को ज्यादा ना दोहरायें।”

“सॉरी सर…मैं तो यह कहना चाहती थी कि आपकी महबूबा कहीं वो तो नहीं?” रुखसाना ने एक ओर संकेत किया।

रशीद ने घूम कर उधर देखा। उनसे हटकर लोगों से अलग-थलग एक मेज पर अकेले एक सुंदर लड़की बैठी उन्हीं की ओर देख रही थी।

रुखसाना का अनुमान ठीक ही था। वह सचमुच पूनम ही थी, जो ना जाने कबसे वहाँ आकर बैठी थी। रशीद उसे देखते ही रुखसाना से बोला – “आपका अंदाजा ठीक है।”

पूनम को देखकर रशीद की बेचैनी कम हो गई। उसने रुखसाना से नज़र मिलाई और उसकी आँखों में चंचल मुस्कुराहट देख वह कुछ झेंप गया। जॉन ने झट कहा – “जाइए मिल लीजिए अपनी प्रेमिका से।”

रशीद ने उठने से पहले रुखसाना से पूछा – “आप पूनम को जानती हैं?”

“नहीं तो!”

“फिर आपने कैसे जाना वही मेरी महबूबा है?”

“उसकी चाल देख कर। जब मैं आपसे मिलने के लिए बढ़ी, तो यह लड़की इधर आते-आते रुक गई थी। मुझे देखकर वह ठिठकी और फिर पलटकर उस कोने में कुर्सी पर जा बैठी। मेरा अनुमान था कि वह आपको जानती है और मेरा आपके गाल को छूना उससे अच्छा नहीं लगा…इसलिए..!”

“ओह रूखी डियर..!” जॉन उसकी बात काटते हुए बोला – “क्यों इनका टाइम वेस्ट कर रही हो। जाने दो ना!”

रशीद अपने स्थान से उठा और पूनम से मिलने के लिए उसकी और बढ़ा। पूनम ने उसे अपनी ओर आते देखा, तो मुँह फेरकर उस फव्वारे को देखने लगी, जिसका चमकता पानी रंगीन बल्बों के प्रकाश मे सुंदर समां बांधे हुए था।

रशीद तेज कदमों से चलता हुआ उसके पास पहुँचा और उसकी कुर्सी के पीछे खड़ा होकर प्यार से बोला – “पूनम!”

पूनम ने पलटकर गंभीरता से उसकी ओर देखा, लेकिन कुछ बोली नहीं।

“तुम कब आई?” रशीद ने उसके साथ वाली कुर्सी पर बैठते हुए कहा।

“जब आपको देखने की फुर्सत मिल गई ।” पूनम कुछ रखाई से बोली।

“फुर्सत? यह क्या कह रही हो? मैं तो घंटी पर से तुम्हारा इंतजार कर रहा हूँ।’

“मेरा इंतजार या अपने दोस्तों का मनोरंजन?”

“अरे वह तो पुराने दोस्त थे, आज अचानक बहुत दिनों के बाद मिले, तो बस जम गए मेरी मेज पर आकर।”

“और पुराने दोस्त से चुंबन प्यार करने लगे ।” पूनम ने व्यंग से कहा।

“तुम्हें भ्रम हो रहा है पूनम। वो जॉन और रुखसाना है। दोनों की कोर्टशिप चल रही है।”

“कोर्टशिप उससे चल रही है और चुम्मा-चाटी आपसे? क्या आप भी इस कोर्टशिप में साझीदार है?”

“यह क्या कह रही हो पूनम? क्या हो गया है तुम्हें?” रशीद आश्चर्य से बोला।

“मुझे तो कुछ नहीं हुआ है, आपको जरूर हो गया है। जबसे पाकिस्तान से लौटे हैं, आदतें ही बदल गई है। आवाज तक में अंतर आ गया है…व्यवहार शुष्क हो गया है। शायद जलवायु बदलने से मुस्लिम लड़कियाँ अधिक भाने लगी है।”

“पूनम!!” रशीद झुंझला गया।

“गुस्सा मत कीजिए। अरे यह बात सच न होती, तो रुखसाना के गले का लॉकेट आपके पास क्यों होता?” यह कहते हुए पूनम ने मेज पर रखे हुए हैंडबैग में से सोने का लॉकेट निकालकर मेज पर रख दिया।

अपनी खोज में लॉकेट को देखकर ऐसी कोई झटका सा लगा। वह आश्चर्य से खड़ा पूनम की कांपती उंगलियों में लटका हुआ लॉकेट देखता रहा। यह क्षण भर का मौन बड़ा दुविधाजनक था। लेकिन उसने झट अपने आप को संभाल दिया बोला – “कहाँ मिला तुम्हें?”

“अपनी लॉज के बगीचे में वही पड़ा था, जहाँ आप पत्तों के बीच खड़े थे।”

“लेकिन पूनम में लॉकेट मेरा है रुखसाना का नहीं!”

“आपको किसने दिया?”

“एक पाकिस्तानी दोस्त ने। उसने कहा, जब तक बॉर्डर क्रॉस नहीं कर लेना इसे गले से ना उतारना। अल्लाह तुम्हारी हिफ़ाज़त करेगा। और मैं यहाँ आकर भी दोस्त की निशानी को खुद से अलग न कर सका।

“तो अपने दोस्त की ये निशानी मुझे दे दीजिए ना!”

“तुम क्या करोगी?”

“उसकी पूजा जिसने आप को सुरक्षित मेरे पास तक पहुँचा दिया।”

रशीद ने लॉकेट को लेकर चूमा, फिर पूनम को लौटते हुए बोला – “लो तुम्हें रखो, लेकिन खो ना देना । मेरी आत्मा से इसका गहरा संबंध है।”

“घबराइए नहीं…मैं इसे अपने पास सुरक्षित रखूंगी।” यह कहकर पूनम ने लॉकेट फिर अपने बैग में रख लिया।

कुर्सियों से उठकर अब वे दोनों उन रंगीन बल्ब की रोशनी में झिलमिलाते फव्वारों के इर्द-गिर्द घूमने लगे। बातों का विषय बदल गया था। पूनम ने विस्तार से अपना दिन भर का कार्यक्रम बताया। रशीद ने अपनी ड्यूटी के मनगढ़ंत किस्से सुना दिए। वह पूनम से प्यार की बातें करने से घबराता था। जब भी पूनम भाव में आकर प्यार की बातें करने लगती, रशीद बड़ी चतुराई से उसे बदल देता।
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Re: वापसी : गुलशन नंदा

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शाम का धुंधलापन अंधेरे में परिवर्तित होने लगा था। आकाश में चांद निकल आया था। पूनम ने उस झील में शिकारे द्वारा घूमने की इच्छा प्रकट की। परंतु रशीद ने यह कहकर टाल दिया कि उसे 11:00 बजे से पहले ही हेडक्वार्टर लौट जाना है। जब से वह पाकिस्तान से लौटा है, कुछ बंदिशें बढ़ गई हैं।

“तो छुट्टी क्यों नहीं ले लेते?” पूनम ने इठला कर कहा।

“वह तो मिलने ही वाली है।”

“कब?”

“बस कुछ ही दिनों बाद …एक महीने की छुट्टी मिलेगी।”

“तब तक तो मैं यहाँ से जा चुकी होंगी!”

“तू क्या हुआ? मैं तुमसे मिलने दिल्ली चला आऊंगा।”

“सच..!” वह खुश होकर बोली।

“हाँ पूनम..इन सुंदर सुहानी वादियों में तो चंद दिन साथ न गुजार सके। दिल्ली में तुम छुट्टी ले लोगी, तो हम एक साथ ही माँ के पास चलेंगे।”

“तो फिर रहा वचन। दिल्ली पहुंचकर छुट्टी के लिए अप्लाई कर दूं?”

रशीद ने हाँ में सिर हिला दिया और दोनों एक साथ मुस्कुरा पड़े। इससे पहले की भी अगला प्रोग्राम निश्चित करते जॉन और रुखसाना ने उन्हें आकर घेर लिया। रशीद ने उन दोनों का परिचय पूनम से कराया। जॉन ने पूनम को बताया कि वह कश्मीर में रहकर इन लोगों के बारे में एक पुस्तक लिख रहा है। लड़ाई आरंभ होने के कारण उसका यह काम अधूरा रह गया था, अब इसे पूरा कर रहा है। रुखसाना उसकी मंगेतर है और गाँव-गाँव उसके साथ जाकर नारियों के घरेलू जीवन को समझने में उसकी सहायता करती है। इसी संबंध में उसकी रणजीत से दोस्ती हो गई थी।

“लेकिन कश्मीरी लोगों के जीवन से इन फौजियों का क्या संबंध हो सकता है।” पूनम ने अचानक जॉन और रणजीत की दोस्ती पर टिप्पणी करते हुए कहा।

“कश्मीर और मिलिट्री का तो एक ऐसा नाता जुड़ चुका है, जिससे हर कश्मीरी के जीवन पर कुछ असर पड़ा है। यह जंग, बॉर्डर के झगड़े, यूएनओ का बीच बचाओ। इन पॉलिटिकल बातों से इन लोगों का जीवन अलग कैसे किया जा सकता है।” जॉन ने गंभीरता से कहा।

................................


रात आधी से अधिक बीत चुकी थी।

रशीद की आँखों में नींद का कहीं पता तक नहीं था। सोने के प्रयत्न में वह बार-बार करवटें बदल रहा था। उसके मस्तिष्क में चिंगारियाँ सी फूट रही थी। अंत में ऊबकर वह बिस्तर से उठ कर आराम कुर्सी पर बैठा और समय बिताने के लिए टेबलेट जलाकर कोई पत्रिका देखने लगा।

जैसे ही उसने पत्रिका खोली, उसकी दृष्टि अपनी हथेली के छालो पर पड़ गई, जो पूनम के आँचल में आग बुझाते समय पड़ गए थे। मरहम लगाने पर भी छालों में हल्की-हल्की जलन हो रही थी। जलन की मिठास से अचानक उसे याद आ गया कि ऐसे ही छाले उसकी हथेली पर पहले भी पड़ चुके थे। सलमा की पहली मुलाकात में भी ऐसे ही मोती उसकी हथेलियों पर डाल दिए थे।

पत्नी की याद आते ही उसका सारा शरीर जैसे किसी अज्ञात आग में झुलस किया….वह तड़प उठा। रात के उस गहन अंधेरे में उसकी कल्पना उसे दो वर्ष पहले की करांची में घटित घटना की तरफ ले गई। सलमा से उसकी पहली भेंट का दृश्य उसकी आँखों के सामने घूम गया।

कैसी छुट्टियों में अपने दोस्त असलम लखनवी से मिलने करांची गया हुआ था। उसे शेरो-शायरी में बिल्कुल रुचि ना थी और इसी कारण वह अपने शायर दोस्त का मज़ाक उड़ाया करता था। उसके विचार से शेर सुनना और सुनाना बेकार आदमियों का काम था। एक दिन वह ना जाने किस मूड में था कि असलम ने उसे फुसला ही लिया। उसने मिर्ज़ा वसीम भाई के मकान पर होने वाले मुशायरा का ज़िक्र इस सुंदरता से किया और उसकी ऐसी रंगीन तस्वीर खींची कि मन ना चाहते हुए भी रशीद उसके साथ मिर्ज़ा जी के घर की ओर चल पड़ा।

आज मिर्ज़ा जी साठवीं सालगिरह थी। इस उपलक्ष में उनके यहाँ एक विशेष मुशायरे का आयोजन किया गया था। असलम रशीद के साथ वहाँ पहुँचा, तो मुशायरा पूरे जोश पर था। ‘वाह वाह सुभान अल्लाह’ ‘माशा अल्लाह’ से सारा हॉल गूंज रहा था। उनकी ओर किसी ने विशेष ध्यान नहीं दिया। वे चुपके से आगे जाकर बैठ गये।

मुशायरे के लिए एक छोटा सा मंच बना हुआ था। वास्तव में यह एक ऊँचा चबूतरा था, जिसके बीच में पतला रेशमी पर्दा डालकर उसे पुरुषों और स्त्रियों के लिए दो भागों में विभाजित कर दिया गया था। एनाउंसर जब किसी शायर के बाद शायरा का नाम पुकारता, तो रेशमी पर्दे के पीछे से खनकती हुई किसी नारी की आवाज आती – “मतला अर्ज़ करती हूँ…”

सब सुनने वालों की आँख एक साथ पर्दे पर जम कर रह जाती और कान स्वर व शब्दों का रस लेने के लिए एकाग्र हो जाते। फिर किसी सुंदर शायरा का शरीर पर्दे के पीछे ही इंद्रधनुष के समान उजागर होता, रसिक युवक दिल थाम कर बैठ जाते।

रशीद इस प्रकार के मुशायरे में पहली बार आया था। उसे यह सब एक सुहाना सपना सा लग रहा था। जब कोई शायारा तरन्नुम से अपनी ग़ज़ल सुनाती, तो वह विभोर सा हो जाता और सोचने लगता कि अब तक वह क्यों ऐसे रंगीन मनोरंजन से वंचित रहा।

कितने हसीन तखल्लुस चुने हैं इन शायराओं ने …सबा देहलवी, लैला लखनवी, तरन्नुम बरेलवी, तबस्सुम लाहौरी इत्यादि….उसने मन ही मन सोचा और चुपचाप बैठा गजलें सुनता रहा। अचानक एक शायर को दाद देते हुए असलम लखनवी ने रशीद को देखा और उसे मूर्तिमान बना चुपचाप देख कर टहूका देते हुए कहा, “अमां! तुम घुग्घू बने ख़ामोश क्यों बैठे हो? तुम भी दाद दो।“

और रशीद बेढंगेपन से हर शेर पर ‘वाह वाह सुभान अल्लाह इललला’ की रट लगाने लगा।

“ऊं हूं…इललला नहीं कहते सिर्फ सुभान अल्लाह कहो।” असलम ने उसे टोका।

और अब रशीद ऊँची आवाज में ‘सुभान अल्लाह सुभान अल्लाह’ की रट लगाने लगाने लगा। प्रायः शेर बाद में पढ़ा जाता और रशीद के मुँहह से ‘सुभान अल्लाह’ पहले निकल पड़ता। उसकी इस हरकत पर मुशायरे में एक जोरदार ठहाका हुआ। मिर्ज़ा साहब ने मुँह बनाकर रशीद की ओर देखते हुए कहा, ‘अगर आप दाद देना नहीं जानते, तो मेहरबानी फ़रमा कर ख़ामोश बैठे रहिये।”

“कौन साहब है यह? कोई नये जानवर मालूम होते हैं।” पर्दे के पीछे से हल्के-हल्के ठहाकों में मिली-जुली आवाजें सुनाई देने लगी। कुछ चंचल लड़कियाँ पर्दा हटा-हटा कर रशीद की ओर झांकने लगी।

“ए हे…क्या बांका जवान है।” सबा देहलवी ने झांककर कहा।

“मगर अक्ल से बिल्कुल कोरा मालूम होता है।” लैला लखनवी ने टिप्पणी की। इस पर महिलाओं में फिर एक ठहाका हुआ। तभी अनाउंसर की आवाज गूंजी – “खातून व हजरात! हमा तन हो जाइए। अब मैं मोहतरमा सलमा लखनवी से कुछ सुनाने के लिए अर्ज़ करता हूँ।”
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सलमा का नाम सुनते ही लोग संभल कर बैठ गये। असलम रशीद के कान में कहा –

“अब कोई उटपटांग हरकत ना कर बैठना। यह मिर्ज़ा साहब की साहबजादी हैं।”

“साहब! खूब गज़ल कहती है।” पास बैठे एक साहब ने विचार प्रकट किया।

“खाक कहती हैं….मिर्ज़ा साहब ग़ज़ल कह देते हैं और शोहरत वह कमा रही है। उनके कलाम में मिर्ज़ा साहब का रंग साफ झलकता है।”

तभी सलमा लखनवी की सुरीली आवाज हॉल में गूंज उठी, “मतला समाअत फरमाइए। शायद किसी काबिल हो। अर्ज़ किया है।”

“निगाहों को शराब आँखों को पैमाना बना डाला,

भिरे साकी वे हर महफिल को मयखाना बना डाला।”

“आ हा हा…हर महफिल को मयखाना बना डाला।” एक साहब इतनी जोर से दोहराया कि थोड़ी देर के लिए मुशायरे पर सन्नाटा छा गया और फिर दाद देने का ऐसा सिलसिला चला कि कई आवाजें एक साथ टकराकर खो गई।

सलमान लखनवी बार-बार शेर दोहराए जा रही थी और हर बार ‘मुकर्रर मुकर्रर’ का शोर होता। रशीद परदे की ओंट से सलमा के दैवीय सौंदर्य को निहार रहा था। जब भी वह कोई शेर पड़ती, तो उसका जी दाद देने को चाहता। लेकिन फिर वह यह सोचकर चुप रह जाता कि कहीं कोई अनुचित शब्द उसके मुँह से ना निकल जाये। फिर सलमा ने यह शेर पढ़ा –

“वह उनका नाज़ से बाहें गले में डाल कर कहना

बढ़िया है कहीं के मुझको दीवाना बना डाला।”

तो उससे ना रहा गया और वह अनायास ‘वाह वाह सुभान अल्लाह’ कहता हुआ खड़ा हो गया। मिर्ज़ा साहब ने घूरकर उसे देखा और असलम ने जल्दी से उसे खींचकर कुर्सी पर बैठा दिया। लेकिन उसकी दृष्टि निरंतर सलमा पर जमी हुई थी। सलमा भी हर थोड़ी देर बाद उसकी ओर देख लेती थी।

सलमा मत्ता पढ़कर जब अपने स्थान पर बैठ गई। रशीद को ऐसा अनुभव हुआ जैसे सृष्टि की गति रुक गई हो। उसके बाद भी काफ़ीदेर तक मुशायरा चलता रहा, किंतु रशीद को किसी के कलाम में दिलचस्पी ना रही। वह केवल जी भर कर एक बार सलमा को देख लेना चाहता था।


अचानक छत से लटके झाड़ से एक धमाके की आवाज हुई। एक बल्ब फटा और लोगों की चीख निकल गई। बिजली के शॉर्ट सर्किट से एक चिंगारी निकली और उस झाड़ में आग लग गई। किसी ने लपक कर मेन स्विच ऑफ कर दिया और सारी बत्तियाँ एक साथ बुझ गए।

अंधेरा होते ही पूरे हॉल में खलबली मच गई। बच निकलने के लिए ऐसा कोलाहल मचा कि दरवाजों से बाहर निकलना मुश्किल हो गया। झाड़ में से अभी तक चिंगारियाँफूट रही थी, उन्हीं चिंगारिओं से मंच पर लगे रेशमी पर्दे में आग लग गई। जलते हुए पर्दे में से एक शोला सलमा की ओर लपका और उसके आंचल में आग लग गई। मिर्ज़ा साहब एकाएक चिल्ला उठे – “बचाओ बचाओ मेरी सलमा को बचाओ। मेरी बच्ची को बचाओ।”

सलमा शोलों में झपटकी हुए भागी। इसके पहले की आग सलमा को पूरी तरह अपनी चपेट में ले लेती, रशीद अपने स्थान से चीते के समान उछलकर उसके सामने आ गया और तेजी से सलमा के जलते हुए दुपट्टे को खींचकर अपने हाथों से मसल-मसल कर आग बुझाने लगा।

दुपट्टे की आग तो बुझ गई, लेकिन जब रशीद और सलमा ने इतने पास एक दूसरे को देखा, तो दोनों के दिलों में चाहत की चिंगारियाँ सी भर गई। सलमा का उभरता हुआ यौवन घबराहट से पसीना-पसीना हुआ जा रहा था। दुपट्टे के बिना तो वह सचमुच कहर ढा रही थी। रशीद लोगों की परवाह न करते हुए स्थिर खड़ा उसे एकटक ताकता रहा। आखिर सलमा के थरथराते होठों से आवाज निकली – “शुक्रिया!”

इससे पहले की रशीद कोई उत्तर देता, मिर्ज़ा साहब चीखते-चिल्लाते वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने झट अपनी शेरवानी उतारकर बेटी के कंधों पर डाल दी और रशीद से लिपटते हुए बोले- “बरखुरदार! तुमने मेरी इकलौती बेटी की जान बचाई है। मैं तुम्हारा एहसान कभी नहीं भूलूंगा।”

“आप बुजुर्ग हैं, मुझे शर्मिंदा कर रहे हैं। यह तो मेरा फ़र्ज़ था।” रशीद ने झुलसे हुए दुपट्टे को जमीन पर फेंकते हुए कहा और अपने जले हुए हाथों को देखने लगा।

“हाय अल्लाह! इनके तो हाथ बुरी तरह जल गए हैं। अब्बा जान! इन पर मरहम लगा दीजिये।” सलमा ने घबराकर कहा।

“देख क्या रही हो। जाओ जल्दी से मलहम की डिबिया मेरे अलमारी से उठा लाओ।” मिर्ज़ा साहब ने बेटी से कहा।

सलमा थोड़ी देर में मरहम की डिबिया ले आई। बाहर की भीड़ से बचाकर मिर्ज़ा साहब रशीद को अंदर वाली बैठक में ले आए और सलमा को उसके फफोलों पर मरहम लगाने को कहा। सलमा कुछ शरमाई, तो मिर्ज़ा साहब बोल उठे, “अरे भाई लगाओ लगाओ। शर्माने की क्या बात है? इस हंगामे में मेरा चश्मा कहीं खो गया, वरना मैं ही लगा देता।”

अब्बा की बात सुनकर सलमा ने निगाहें झुका ली और ख़ामोशी से रशीद के हाथों पर मरहम लगाने लगी। थोड़ी देर के लिए मिर्ज़ा साहब बाहर चले गए, तो वह रशीद की ओर देखती धीरे से बोली, “आपने खामखा अपने आप को परायी आग में जला लिया।”

“लेकिन मुझे इसका कोई गम नहीं!”

“क्यों?”

“इतनी दिलकश मुलाकात जो मयस्सर हो गई!”

तभी रशीद का दोस्त असलम उसे ढूंढता हुआ बैठक में आ गया। सलमा ने किसी और की उपस्थिति में वहाँ रुकना उचित न समझा और अनायास अंदर की ओर भाग गई। असलम में अर्थपूर्ण दृष्टि से पहले रशीद को और फिर उस भागते हुए सौंदर्य को देखा और कोई उपयुक्त व्यंग्य का तीर चलाने ही वाला था कि मिर्ज़ा जी को आते देख कर चुप रह गया। झट रशीद के हाथों पर फिर से मलहम लगाते हुए धीरे से बोला, “दोस्त फफोलों के निशान तो इस मलहम से मिट जायेंगे, लेकिन जो घाव तुम्हारे दिल पर लगा है, उसका मरहम कहाँ से लाओगे?”

रशीद याद की सुंदर वादी में ही खोया हुआ था कि अचानक दरवाजे पर किसी जीप गाड़ी की आवाज ने उसे चौंका दिया। कोई इतनी रात गए उससे मिलने क्यों आया है? यह सोचकर वह कुछ डर सा गया।

उसने झट लाइफ ऑफ कर दिया और आराम कुर्सी से उठकर दरवाजे पर चला आया। उसने दरवाजे का पर्दा हटाकर शीशे पर जमी धुंध को साफ किया और बाहर झांकने लगा। मेजर सिंधु की जीप गाड़ी को पहचानने में देर नहीं लगी, जिसमें से शाहबाज उतर कर अंदर की ओर आ रहा था। इतनी रात के शाहबाज को देख कर उसे आश्चर्य हुआ।

जैसे ही शाहबाज ने हौले से दरवाजे पर दस्तक दी, रशीद ने दोबारा कमरे की बत्ती जला दी और हाउस कोट पहनते हुए दरवाजा खोल दिया।

शाहबाज के अंदर आते ही रशीद को सैल्यूट किया और दाएं-बाएं देखता हुआ उसकी ओर बढ़ा। रशीद ने झट दरवाजा बंद करके पर्दा फैला दिया और पलटकर पूछा, “क्या बात है शाहबाज इतनी रात गये?”

“एक ज़रूरी काम से आया हूँ सर!”

“क्या काम है?”

“555 का पैगाम है सर…कल सुबह यूएनओ में रखे जाने वाले सवालों के बारे में यह मीटिंग होने वाली है। उसकी रिपोर्ट रात के पहले हेडक्वार्टर में पहुँचनी चाहिए। यह कहते हुए शाहबाज में जेब से एक पत्र निकालकर रशीद की ओर बढ़ा दिया।

रशीद ने पत्र खोलकर पढ़ा। यह कोड में लिखा हुआ कोई नोट था। नोट पढ़कर उसने शाहबाज को देखा और बोला फिर कहा, “वहाँ पहुँचाने के लिए हमें कहाँ जाना होगा?”

“कल रात 9:00 बजे रुखसाना आपको अपने साथ ले जायेगी, उस अड्डे पर।”

“ऐसी लेकिन तुमको इतनी रात के अपने अफसर कि जीप गाड़ी में नहीं आना चाहिए था।”

“आप इसकी फ़िक्र मत कीजिए साहब! सिंधु साहब से इज़ाजत ले ली थी….अपनी बीमार बीवी को देखने गाँव जा रहा हूँ….सुबह लौटूंगा।”

“तो जाओ…जल्दी से यहाँ से खिसक जाओ।” रशीद ने कहा और आगे बढ़ कर दरवाजा खोल दिया।

शाहबाद में रशीद को फिर सैल्यूट किया और जल्दी से बाहर निकल गया। रशीद ने एक बार फिर उस नोट को पढ़ा और कुछ सोचते में बिस्तर पर आ लेटा। इस समय उसके मन में एक नई चिंता उभर आई थी। जो समय हेड क्वार्टर में सिग्नल के लिए निश्चित किया था, उसी समय पूनम ने उसे अपने यहाँ खाने पर आमंत्रित कर रखा था। इसी असमंजस में बिस्तर पर करवटें लेते हुए उसने सारी रात गुज़ार दी।
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साधू सा आलाप कर लेता हूँ ,
मंदिर जाकर जाप भी कर लेता हूँ ..
मानव से देव ना बन जाऊं कहीं,,,,
बस यही सोचकर थोडा सा पाप भी कर लेता हूँ
(¨`·.·´¨) Always
`·.¸(¨`·.·´¨) Keep Loving &
(¨`·.·´¨)¸.·´ Keep Smiling !
`·.¸.·´ -- raj sharma
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