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koushal
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मुख्य पात्रों के बारे में

परी : एक कुरूप लड़की जो कई लोगों के हत्या के जुर्म में कारगार में कैद थी और जिसे अदालत में पेश किया गया। न्यायधीश के आदेश पर जो अपनी कहानी अदालत में सुनाती है।

नीलिमा : ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाली एक महिला और परी की माँ जिसे एक पुत्री को जन्म देने के अपराध में निरंतर ही प्रताड़ित किया जाता था।

राघव : परी के पिता जो पेशे से एक मजदूर और बहुत ही गरीब किसान है। बिहार राज्य के ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले इस मजदूर की आर्थिक स्थिति बहुत ही दयनीय थी।

सुलेखा : परी की बड़ी बहन जो उसकी सबसे अच्छी मित्र भी थी और जिंदगी की कठिनाईयों को दोनों ने साथ में लड़ी।

कविता : परी और सुलेखा की पड़ोसी मित्र जिसके परिवार वालों ने ही उसकी हत्या कर दी थी क्योंकि वह किसी दूसरे जाति वाले लड़के से प्रेम करने लगी थी।

परी की दादी : एक बहुत ही पुराने ख्यालात वाली वृद्ध औरत जिन्हें वंस बढ़ाने के लिए एक पोते ही लालसा थी। लेकिन उनकी यह लालसा पूरी नहीं होने की वजह से उन्होंने अपनी बहू को बहुत प्रताड़ित किया।
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अध्याय एक

नीलिमा गर्भवती है और आज उसका प्रसव है। गाँव के कुछ लोग राघव को सहानुभूति देने के लिए दरवाजे के बाहर ही चबूतरे पर बैठे है, और राघव की बड़ी बेटी सुलेखा जो अभी मात्र दो ही वर्ष की है, बिना किसी टेंसन के अपने खिलौनों के साथ खेलने में मग्न है। उसे ज्ञात है कि उसके घर में एक नन्हा सा मेहमान आने वाला है। एक राजकुमार ऐसा उसे बताया गया है। अपने भाई के साथ खेलने की उत्सुकता, और प्रसवपीड़ा से चीखती नीलिमा।

पिछली बार की तरह, इस बार भी प्रसव के लिए नीलिमा को उसके मायके वाले अपने साथ ले जाने का प्रस्ताव राघव के माता और पिता के सामने रखे थे, लेकिन उन्होंने यह कहकर इनकार कर दिया कि आपके घर की अशुभ छाया में कहीं लड़की न जन्म ले ले।

पिछली बार गई थी नीलिमा, और प्रसव भी वहीं हुआ था। परंतु जब सुलेखा का जन्म हुआ तो राघव के परिवार वालों की तरफ से रिश्तों की डोर में गांठ आ गई। उसके बाद से अब तक राघव एक बार भी ससुराल नहीं गया और न ही नीलिमा को मायके जाने को मिला।

बड़े संतान में एक पुत्र की ख्वाइश उस वक़्त तो अधूरी रह गई थी लेकिन इस बार तो लड़का होने की संभावना पूर्ण थी। बुजुर्गों द्वारा बताए गए व्यवहार और झाड़-फूंक करने वाले साधुओं और भिक्षुओं के द्वारा बताए गए हर एक टोटके को उसने अच्छी तरह से किया था। और इस बार लड़की होने की कोई गुंजाइश नहीं थी।

"अरे अब बैठ भी जा। क्यों इधर-उधर चक्कर काट रहा है टेंसन में? आ बैठ। बिना पजामे वाले बाबा का आशीर्वाद कभी व्यर्थ नहीं जाता। उन्होंने कहा है ना तुझे कि बेटा होगा! तो बेटा ही होगा! आ बैठ!" चबूतरे पर बैठे उन सात-आठ लोगों में से एक ने राघव का हाथ पकड़ कर तसल्ली दिलाते हुए उसे अपने पास चबूतरे पर बैठाया। और उसके कंधे पर हाथ रखा।

"वो तो ठीक है। लेकिन अभी मुझे नीलिमा की चिंता हो रही है। इस बार शायद उसे ज्यादा प्रसव पीड़ा सहना पड़ रहा है।" बोलते हुए वह फिर से उठ खड़ा हुआ और परिसर में चक्कर लगाने लगा।

धूम्रपान कर रहे एक वयस्क ने राघव से कहा कि तू इतनी चिंता क्यों कर रहा है? अन्दर है ना उसकी देख रेख करने वाले। बिल्कुल औरतों के जैसे बात-बात पर तू ऐसा टेंसन लेने लगता है। —और वह हंसने लगा।

इस बार वास्तव में नीलिमा को सामान्य से ज्यादा ही प्रसव पीड़ा का सामना करना पड़ रहा था। उसकी ख्वाइश थी किसी अच्छे अस्पताल में जाने की। क्योंकि गाँव के कुछ औरतें जिनका प्रसव अस्पताल में हुआ था, नीलिमा को बताया करती थी कि अस्पताल में प्रसव होने से माँ और बच्चा दोनों ही सुरक्षित होते है, और प्रसव पीड़ा भी कम होता है। क्योंकि वह अपने बच्चे के साथ कोई जोखिम नहीं लेना चाहती थी, अस्पताल जाने का प्रस्ताव उसने राघव के समक्ष रक्खी तो थी लेकिन उसकी सास का कहना था कि पुत्र प्राप्ति के लिए स्वामी जी ने कहा है कि प्रसव, घर पर ही हो, तो बेहतर होगा। और पुत्र की आयु भी लम्बी होगी। और अस्पताल में खर्चे भी तो बहुत होते है? इतना पैसा कहाँ से लाएगी? दहेज के नाम पर तो उसके मायके वालों ने बस पाँच हजार रूपए और एक साइकिल ही दिया है।

"तू तो बस मिठाई का डिब्बा ले आ। खुशखबरी आती ही होगी।" दूसरे ने कहा।

राघव के पिता जी एक ओर निश्चिंत बैठे थे क्योंकि स्वामी की बातों ने उन्हें पूर्ण विश्वास दिलाया था कि इस बार पुत्र ही होगा। उन्होंने भी राघव को शांत होकर बैठ जाने को कहा लेकिन लगातार बढ़ती हुई नीलिमा की चीखें उसे व्याकुल कर रही थी। अपनी माँ की चींखें सुनकर दो वर्ष की बच्ची सारे खिलौनों को फेंक कर अन्दर जाने के लिए दरवाजे की ओर भागी। वैसे तो दरवाजा अंदर से बंद था लेकिन फिर भी राघव ने भाग कर उसे पकड़ा और गोद में ले लिया। वह अबोध भी रोने लगी।

आखिरकार वह वक़्त आ ही गया जब नीलिमा ने एक बच्ची को जन्म दिया। हां, इस बार भी लड़की को ही जन्म दिया नीलिमा ने। प्रसव कराने वाली एक औरत दरवाजा खोल कर बच्ची को गोद में लिए राघव के पास आई। उसकी मायूस चेहरे ने सबको बता दिया कि संतान के रूप में एक पुत्र की उनकी ख्वाइश इस बार भी पूरी नहीं हुई। इस बार भी लड़की ही हुई।

"लड़की है।" इतना बोलकर वह इस उम्मीद से खड़ी रही कि राघव उसे गोद में लेगा और अपनी पुत्री की खूबसूरत शक्ल का दीदार सबसे पहले करेगा। और सुलेखा को गोद से उतार कर वह बच्ची को गोद लेने के लिए अभी बढ़ने ही वाला था कि उसकी माँ ने उसे रोक लिया।

"वापस रख आ इसे इसके माँ के पास। कोई नहीं देखेगा इस मनहूस की शक्ल को।" लड़की होने की वजह से सबका चेहरा वैसे तो पहले से ही उतरा हुए था, और वहाँ उपस्थित किसी भी शख्स को एक लब्ज बोलने की हिम्मत नहीं हो रही थी क्योंकि हर किसी ने अपने-अपने ज्ञान के अनुसार राघव को पुत्र प्राप्ति के लिए उपाय बताए थे। जिसकी निष्फलता निसंदेह सबके सामने था। ऐसे कटु वचन को अनदेखा करके राघव अपनी पुत्री को गोद में लेगा इस उम्मीद से वो कुछ देर तक खड़ी रही।

"मैंने क्या कहा सुना नहीं तुमने?" राघव की माँ जोर से उस औरत पर चिल्लाई। उसकी तीक्ष्ण शब्दों ने उसके हृदय में भय उत्पन्न कर दिया और भागते हुए बच्ची को नीलिमा के पास रखने के लिए वो अन्दर चली गई।

"याद रखना कोई भी उस मनहूस की शक्ल नहीं देखेगा।" चेतावनी देते हुए वह भी अन्दर चली गई। स्त्री ने अभी बच्ची को नीलिमा के समीप सुलाई ही थी कि वह भी वहाँ पहुँची और नीलिमा के पास गई। क्योंकि नीलिमा उसके उम्मीदों पर इस बार भी खरी नहीं उतरी थी, उनके हृदय में क्रोध और चिढ़ की भावना अत्यंत तीव्र थी। लेकिन इसमें नीलिमा की तो कोई गलती थी ही नहीं।

राघव की माँ नीलिमा से बोली,'देखो इस महारानी को। बेटी पैदा करती है बेटी। और यह भी नहीं जानती कि वंश बेटी नहीं बल्कि बेटा बढ़ाता है। ये तो सिर्फ बोझ होती है। एक ऐसी पूंजी जिसका कोई लाभ नहीं।'

उसकी यह शब्द स्पष्ट करते थे कि पुत्री के जन्म से उसकी शादी तक के किए जाने वाली सारी इन्वेस्टमेंट व्यर्थ है। क्योंकि वह ससुराल चली जाती है। पुत्र और पुत्री के बीच तुलना करने के लिए उसकी सांस ने जिस पगडंडी का उपयोग किया था क्या वह सही है? —कुछ सेकेंड तक नीलिमा भी विचार करती रही। क्या वास्तव में लड़की को पालना लाभकारी नहीं है? लेकिन लाभ और हानि के बारे में विचार करना तो व्यापार है? और मैं कोई व्यापारी नहीं हूं। अच्छा मान लिया कि बेटी को पालना लाभकारी नहीं होता लेकिन इस बात की क्या गारंटी है कि पुत्र आगे चल कर बुढ़ापे की लाठी बनेगा? गाँव और समाज में आएदिन यह सुनने को मिलता है कि वृद्घ होने पर फलाने के बेटे-बहुओं ने उन्हें बेघर कर दिया। ऐसे में क्या सही है और क्या ग़लत इसका फैसला राघव की माँ लाभ और हानि की इस पगडंडी के माध्यम से नहीं कर सकती।

"माफ़ करना माँ जी। पर आप भी तो एक बेटी ही हो।" सीमित शब्द संख्या में बने इस शब्द ने राघव की माँ के तथ्यों का न सिर्फ मुंह तोड़ जवाब दिया था बल्कि यह भी साबित कर दिया था कि संतान के रूप में बेटी होना किसी व्यापार की तरह लाभ या हानि का तथ्य नहीं है। और उसे इस बात की बहुत खुशी है कि इस बार भी उसने एक बेटी को जन्म दिया।

एक लड़की का जीवन ही संघर्ष से आरंभ होता है। और इस लड़की की किस्मत में तो शायद सिर्फ संघर्ष ही संघर्ष लिखा है। नीलिमा की ये शब्द राघव के माँ के हृदय को भेद गई। उसे निशब्द कर गई क्योंकि वह भी तो एक बेटी ही थी। लेकिन इस तथ्य ने उन्हें सिर्फ निरुत्तर किया था संतान के रूप में बेटी को पाकर संतुष्ट नहीं। मुंह फुला कर वहाँ से चली गई।

अपनी माँ के वक्ष के समीप सोई उस लड़की की बदकिस्मती तो देखिए कि उसकी जन्म लेने की खुशी किसी को भी नहीं हुई। लेकिन इस बात से शायद उसे कोई फर्क नहीं पड़ता था, क्योंकि इन सब रीतियों और तर्कों से अज्ञात थी। नीलिमा उसकी ओर देखी। कुछ ही घंटे तो हुए थे उसे इस दुनियां में आए हुए और इतनी जल्दी ही वो मुस्कुराना भी सीख गई थी या शायद उसकी शक्ल ही कुछ ऐसी थी। बहुत ही प्यारी शक्ल पर खूबसूरत हंसी, दुनियां और दुनियां के विचारों से अज्ञात — शायद इसीलिए मुस्कुरा रही थी कि उसने सबसे बुद्धिमान प्राणी इंसान के रूप में जन्म लिया है। उसकी खूबसूरत आँखें बहुत ही चमकीली और सम्मोहक थी, कि क्रोधित भी देखकर सम्मोहित हो जाय; पर यह नीलिमा के सास और अपनी दादी को मोहित करने में नाकाम रही। नीलिमा उसके सर पर हाथ फेरते हुए बोली कि कोई बात नहीं बेटी, जो क्या हुआ कि तुम्हारे इस दुनियां में आने की खुशी किसी को नहीं हुई? तुम तो मेरी परी हो।

किस्मत क्या लिखी थी उस बेकसूर की ईश्वर ने कि जन्म के बाद उसके पिता ने उसका चेहरा देखने से भी इंकार कर दिया। बात यह नहीं था कि वह उसकी शक्ल देखना नहीं चाहता था बल्कि उसकी माँ और बाप ने वचन के बेड़ियों में कैद कर दिया था। राघव पेशे से एक किसान था। अपनी खेती तो नहीं थी उसके पास लेकिन वह फिर भी खेती ही करता था। कुछ जानवरों को भी पाल रक्खा था जिसके दूध को कभी बेच देता तो कभी खुद भी उपयोग करता। भारत का एक राज्य बिहार और इस राज्य के एक छोटे से गाँव में निवास करने वाला राघव अक्सर ही आर्थिक समस्याओं से तंग रहता था। इस दौर में अब तक बिजली तो गाँव में आ गया था लेकिन कनेक्सन लेने का विचार उसने नहीं किया था। कुछ ही रूपए तो कमाता था और उसमें भी हर महीने बिल जमा करना; यह तो चादर से ज्यादा पांव पसारने वाली बात थी।

गाँव के सन्नाटे में न सिर्फ आज का दिन दफन हो गया था बल्कि परी के जन्म लेने की खुशी भी। ग्रामीण रिवाजों की तरह एक दीया घर के मुख्य दरवाजे पर जला दिया गया था और एक आंगन में लगे तुलसी के पौधे के पास। इस सन्नाटे से प्रतीत हो रहा था कि घर का हर एक सदस्य भोजन करके सो गया है। नीलिमा अब भी उसी कमरे में उसी बिस्तर पर सोई हुई है और परी उसके वक्ष के पास में। कुछ कदमों की आहट से प्रतीत हो रहा था कि इस घर का एक सदस्य अभी भी जाग रहा है और छुपते-छुपाते घर के ही किसी स्थान पर जा रहा है।
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राघव की माँ और पिता जी तो गहरे नींद में सोए हुए थे और नीलिमा भी अपने कमरे में। राघव को अपनी पुत्री को देखने की उत्सुकता ही था जो शायद उसे सोने नहीं दे रहा था। वह बिस्तर पर से उठा। उसकी बड़ी पुत्री जो उसके साथ ही में सो रही थी कि मासूम शक्ल को कुछ देर तक देखता ही रहा और सोचता रहा कि मैंने इसे किस बात की सजा दे दिया है? कितनी बेचैन थी वो अपनी माँ और छोटी बहन को देखने के लिए। लेकिन किसी ने भी उसे नीलिमा के पास जाने नहीं दिया था। बड़ी ही सावधानी से वह बिस्तर पर से उठा ताकि सुलेखा की आँख न खुल जाय। बहुत जतन करने पर तो वह कुछ देर पहले ही सोई है और अगर जाग गई तो फिर नीलिमा के पास जाने की जिद्द करने लगेगी। यह पुष्टि करने के लिए कि उसके माता और पिता सो रहे है या नहीं राघव उनके कमरे के पास गया और खिड़की से झांक कर देखा। उसके पिता जी की खर्राटें स्पष्ट कर रही थी कि वे गहरी नींद में सो रहे हैं।

रात के अंधियारे में कहीं वो किसी वस्तु से न टकरा जाय; बड़ी ही सावधानी से वह उस कमरे के पास गया जहाँ नीलिमा सो रही थी। कमरे के दरवाजे पर खड़ा हो कर अन्दर जाने की हिम्मत जुटाने लगा लेकिन उसकी माँ के द्वारा दिए गए वो वचन उसके हिम्मत को तोड़ रहा था। भावुक हो कर आंसू उसके आँखों से झलक पड़ा और बिना किसी बंधन के यह किसी नदी के धार की तरह मुहाने की दिशा में बहने लगा। एक संघर्ष चल रहा था उसके भीतर और अंततः उसने अपनी दिल की बात सुनी। एक बेटी के जन्म के प्रति सामाजिक सोच और अपनी माँ के दिए गए वचन को अनदेखा करके उसने वही करने का फैसला किया जिसने उसे यहाँ तक खींच लाया था। उसने नीलिमा को देखा। प्रतीत हुआ कि वो गहरी नींद में सो रही है। राघव आगे बढ़ा और नीलिमा के पास गया। अपनी छोटी पुत्री को देखा जो उसके आने की आहट सुनकर जाग गई थी और खिलखिला रही थी। कुछ सेकेंड तक लगातार मौन खड़ा रहने के उपरांत उसने बड़ी ही सावधानी से परी को गोद में उठाया और चांदनी सी चमकती उसकी नूरानी चेहरे को देखा। उसकी होंठों पर सजी बेहद ही खूबसूरत मुस्कान ने उसके हृदय में उमड़ रहे सारे संशय को समाप्त कर दिया। और उसके होंठों पर भी मुस्कान की एक लहर दौड़ पड़ी। राघव की आँखों से आंसू बहते ही जा रहे थे लेकिन इसका उसे जरा सा भी आभास नहीं था।

"माफ़ करना मेरी बेटी। मेरी नन्ही परी। ये मत समझना कि तेरे आने से तेरा ये बाप नाराज है; लेकिन देखो न तेरा ये बाप कितना बदनसीब है कि तेरी स्वागत में मुस्कुरा भी नहीं सका। लेकिन अब मैं जी भर कर मुस्कुराऊंगा। मेरी आँखों में आंसू देख कर यह मत समझ लेना कि तेरे आने से मै दुःखी हूं। यह आंसू तो मेरे आँखों में इसलिए है कि मै कितना बदनसीब हूं। लेकिन क्या करता मै? मजबूर हूं। जकड़ा हुआ हूं सामाजिक रीतियों से। जहाँ वंश बेटियां नहीं बेटे बढ़ाते हैं। मेरी खूबसूरत परी हो तुम और मैंने तो सोच लिया है कि मैं तो तुम्हें परी कह कर ही बुलाऊंगा। परी।"

राघव ने अपनी छोटी पुत्री का नामाकारण कर दिया। उसके आँखों से बहते आंसू से तो यह स्पष्ट ही नहीं हो रहा था कि यह खुशी के है या खुद पर अफ़सोस करने के लिए। परी। बहुत ही खूबसूरत नाम रक्खा था उसने अपनी छोटी पुत्री की और थी भी वह बिल्कुल परी के जैसी। कुछ देर तक वह गीली आँखों से उसकी चमकीली आँखों को देखता रहा और फिर उसे वापस से नीलिमा के पास सुला दिया। और चला गया। उसके जाने के बाद नीलिमा ने आँखे खोली। वह सोई हुई तो थी लेकिन नींद से नहीं और राघव के आगमन की आहट सुनकर ही वो भी जाग गई थी लेकिन आँखे बंद किए बिना गतिविधि किए लेटी रही। और जब वह कमरे से बाहर चला गया तो उसने अपनी आँखें खोली। और स्नेह से परी के सिर पर हाथ फेरते हुए बोली,' परी, बहुत ही अच्छा नाम रक्खा है तेरी, तेरी बापू ने।"
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अध्याय दो

सेंट्रल जेल के एक अंधेरे कमरे में जहाँ दीवार पर बना एक छोटा सा छेद ही माध्यम था प्रकाश के अंदर आने का। उस छेद से होकर आती हुई सूर्य की रोशनी एक मैले कुचैले कम्बल ओढ़े सोई लड़की पर पड़ रही थी।

कोने में सोई वह लड़की सर को कम्बल में ढक कर सोई हुई थी लेकिन उसकी हथेली और दूसरे हाथ की कुछ उंगलियां ही बाहर दिख रही थी। यह जला हुआ था और इसे देखकर ऐसा लग रहा था कि तेज़ाब ने शायद उसकी त्वचा को बिल्कुल ही नष्ट कर दिया था।

छोटे से छेद से अन्दर आती सूर्य की थोड़ी सी रौशनी से वक़्त का अंदाजा लगा पाना तो संभव नहीं था लेकिन शायद यह सुबह का ही समय था। चार - पाँच पुलिसवाले वहाँ आएं। एक इंस्पेक्टर और बाकी सब हवलदार थे शायद।

एक ने कारागार की सलाखें खोली और फिर एक - एक करके सब अन्दर प्रवेश किए। उस लड़की से कुछ कदम पीछे ही सब खड़े हो गए। सलाखों के खुलने की आवाजें और उनके कदमों की आहट की ध्वनि के बाबजूद भी वह बिना कोई हरकत किए वैसे ही सोई हुई रही। एक हवलदार कुछ दूर पीछे से ही अपने डंडे से उसके बदन को हिलाते हुए उसे जगाने की कोशिश करने लगा।

"उठ। ऐ लड़की उठ। उठ।" उसने उसके बदन को हिलाते हुए उसे जगाया और डंडा वापस पीछे खींच लिया।

सबसे पहले उस लड़की ने अपना चेहरा कम्बल से बाहर निकाली। उसके बिखरे मैले बाल और आँखें एकदम लाल जैसे उसकी पुतलियों में रक्त उमड़ आया हो।और पूरे चेहरे पर लाल-लाल घाव भरे पड़े थे। बिल्कुल ही कुरूप थी वह। उसकी बदसूरत शक्ल को देखकर वहाँ उपस्थित पुलिसवालों को घिन्न आ गया। इंस्पेक्टर ने एक ओर थूकते हुए कहा,' कैसे - कैसे लोग बनाता है भगवान? और बनाता भी है तो यहाँ क्यों भेज दिया? छिः इसे देखकर घिन्न आ रही है। कोई इतना बदसूरत कैसे हो सकता है?'

हालाकि उसकी शक्ल को देखकर उसकी उम्र का अंदाजा लगाना तो संभव नहीं था लेकिन उसकी उम्र करीब तेईस वर्ष होगा। वो उठ बैठी। हाथों एवं पैरों में चूड़ियों और पायल के बजाय बेड़ियां थी जो किसी भी तरह से श्रृंगार का प्रसाधन नहीं था। अपनी गर्दन झुकाए वो खामोश बैठी रही और उसके लंबे बालों ने उसके बैठने के तुरंत बाद ही उसके चेहरे और जिस्म को ढक लिया। लेकिन अब भी वो अपने पैरों को कम्बल से ढके हुए ही थी।

"विश्व सुंदरी जी, कृपया आप हमारे साथ चलने का कष्ट करेंगी? आज आपका अदालत में पेशी है।" इंस्पेक्टर ने उस कुरूप लड़की से उसकी सुंदरता का उलाहना देते हुए कहा।

अपने हाथों का सहारा लेते हुए वो उठ खड़ी हुई और लड़खड़ाते हुए कारागार से बाहर निकली। उसके पीछे सभी पुलिसवाले भी कारागार से बाहर निकलें। जेल के बाहर आते ही उसकी आँखें चकाचौंध हो गई। न जाने कितने दिनों से वो उस अंधेरे कारागार में कैद थी। हालाकि अब भी बेड़ियों ने उसके हाथों और पैरों को जकड़ रक्खा था। धूप की चिलमिलाती रौशनी जब उसकी आँखों पर पड़ी तो उसकी पलकों को बंद होने के लिए बेबस होना पड़ा। इस तेज रौशनी से आँखों को बचाने के लिए उसने अपनी हथेलियों से आँखों को ढक लिया। कुछ देर बाद जब उसे लगा कि अब वह सूर्य की किरणों की चमक को झेल सकती है; धीरे - धीरे आँखें खोलकर सूर्य से नज़रे मिलाई। मई के महीने में सुबह आठ बजे भी इतनी कड़ाके की धूप होती है। उसे यहाँ से अदालत ले जाने के लिए एक गाड़ी उसका इंतजार कर रही थी। वो उस गाड़ी पर जाकर बैठ गई। उसके बैठने के उपरांत महिला पुलिस की एक टीम भी गाड़ी पर बैठी। और गाड़ी अदालत को रवाना हुई।

उसकी इस बदसूरत छवि को देखकर कोई कुंठित न हो जाय इसलिए उसे एक बुर्का जैसा काले रंग का लिवास पहना दिया गया था। हर न्यूज चैनल की ब्रेकिंग न्यूज पर बस एक ही सुर्खी छाई थी। उस लड़की को जेल से अदालत के जाने की घटना। आखिर उसने ऐसा क्या गुनाह कर दिया था? जेल से अदालत जाने तक की हर एक घड़ी को सभी न्यूज चैनल पर लाइव प्रसारित किया जा रहा था और टीवी के सामने लोगों की भीड़ भी उमड़ी पड़ी थी।

जब वह गाड़ी पर बैठी थी तो कुछ रिपोर्ट दूर से ही उसकी तस्वीर को कैमरे में कैद करके अपने चैनल पर प्रसारित कर रहे थे। लेकिन इन सब का प्रभाव न ही उस कुरूप लड़की पर पड़ा और ना ही उसके साथ खड़े पुलिस वालों को।

"... तो गाड़ी यहाँ से खुल चुकी है और गुनेहगार को अदालत ले जाने के लिए पुलिस की गाड़ी अदालत को रवाना हो गई है।.." एक रिपोर्टर टीवी स्क्रीन पर बोलता हुआ दिखा और उसके पीछे पुलिस की वो गाड़ी खुली।

पता नहीं किस सोच में मग्न थी वो? रक्त से लाल आँखों में कुछ क्षण के लिए जैसे स्नेह उमड़ पड़ा था और शायद अपनी खूबसूरती की छवि की कल्पना करने लगी थी लेकिन अचानक से ही उसे अपनी वास्तविकता का आभास हो गया। हाथ से ज्यादा लम्बाई वाले बुरके से अपनी कलाई को थोड़ा बाहर निकाली और कुछ क्षण तक लगातार देखती रही। हृदय में उमड़ रहे वेदनाओं और भावों को स्पष्ट कर पाना तो मुश्किल था क्योंकि दिल की बात कहने वाली आँखें रक्त की तरह लाल थी और भाव को स्पष्ट करने वाली चेहरे की त्वचा झुल्सी, काले नकाब के पीछे कैद थी। लेकिन इतना तो यकीन से कहा जा सकता है कि अपनी छवि की वास्तविकता उसकी हृदय को सुकून तो दे नहीं सकता था।

पास ही में बैठे एक पुलिस ने वक़्त व्यतीत करने के लिए अपना मोबाइल निकाल कर उसमे टिक- टॉक देखने लगे। एक दो वीडियो देखने के बाद जब उन्होंने स्वाइप अप किया तो मोबाइल स्क्रीन पर एक बहुत ही खूबसूरत लड़की की छवि दिखाई पड़ी। कई मिलियन फॉलोअर्स वाली उस लड़की को वो देख ही रही थी कि उस पुलिसवाले ने उसकी ओर देखा। मोबाइल स्क्रीन पर दिख रही उस लड़की और उसके पास ही में बैठी उस कुरूप अपराधी की तुलना करते हुए अपने मन ही मन में कहने लगा कि कहाँ ये और कहाँ तुम! इसकी खूबसूरती की तुलना तुमसे करना ही बेवकूफी होगी। किसी को भी दीवाना बनाने वाली उसकी आँखें और तुम? तुम पर तो थूकने का मन करता है।

उसके हृदय में उमड़ रहे अपने प्रति विचारों को स्पष्ट समझ गई थी लेकिन इससे पहले कि वो मोबाइल स्क्रीन से नजर हटाती उसने मोबाइल बंद करके वापस से जेब में रख लिया।

आज भीड़ भी बहुत थी अदालत में। कुछ इस केस की स्टडी करने वाले थे, कुछ वकील, कुछ मुजरिम और कुछ उन्हें छुड़ाने और सजा दिलाने के लिए। न्याय का मंदिर कुछ लोगों के लिए व्यापार का दुकान सा था कि जब चाहे गुनाह करके माफ़ी खरीद आएं। कुछ पैसों के बल पर न्याय खरीदते हैं तो कुछ लालची माफ़ी बेचते हैं। इसी वजह से गुनाह के दलदल से गुनेहगार गुनाह करके आजाद घूमता है और एक बेकसूर सजा काटता है। यहाँ का वातावरण कुछ ऐसा ही था या कुछ और, यह तो एक रहस्य है।

अदालत के बाहर बहुत सारी स्त्रियां खड़ी नारे लगाए जा रही थी,' We want justice..! हमें न्याय चाहिए..! औरतों को न्याय दो। उनको उनका अधिकार दो।"

कोरे कागज की तख्ती पर कुछ काले अक्षरों में यही सारे नारे लिखे थे जिसे यहाँ उपस्थित सारी औरतें लगातार दुहराए जा रही थी। भीड़ इतनी बड़ी थी कि परिसर क्षेत्र का फैलाव सिमटा हुआ प्रतीत हो रहा था। आखिर क्या वजह है कि ये औरतें न्यायालय के बाहर क्रांतिकारियों की तरह प्रदर्शन कर रही है? और किस चीज के लिए न्याय माँग रही है? कैसा अधिकार चाहिए था उन्हें? हर चीज की आजादी तो है; पढ़ने की, लिखने की, स्वतंत्र घूमने–फिरने की, अपने दम पर खड़ा होने के लिए, रोजगार करने के लिए और नौकरी करने के लिए।

वास्तव में सिक्के की दूसरी पहलू की तरह ही इस घटना की एक पहलू भी अभी नज़रों से ओझल है।

एक रिपोर्टर उन औरतों के पास गया और सबसे आगे खड़ी एक औरत से पूछा कि आपको क्या लगता है कि कौन गुनेहगार है? कुछ कहना चाहती है आप?

"वो स्वाभिमानी थी और स्वाभिमान थी हम औरतों की। वो प्रेरणा थी हमारी। हमारे समाज के खोखले रीति रिवाजों को आज बदलना होगा। हम भारत की स्वतंत्र महिलाएं हैं। हमें न्याय चाहिए। हमें अपना स्वाभिमान चाहिए। औरतों को उनका पहचान चाहिए।" और वह फिर से नारा लगाने लगी। *We want justice..! We want justice..!"

यह मामला भी शायद उसी कुरूप लड़की से संबंधित था जिसे अभी अदालत में लाया जा रहा था। एक ओर किनारे में आ कर रिपोर्टर कैमरा की ओर देखते हुए बोलने लगा।

"जैसा कि आप देख रहे हैं कि आज औरतें अपनी स्वाभिमान, अपनी पहचान पाने के लिए लड़ रही है। इनकी यह क्रांति क्या रंग लाएगी? और आज पेश किया जा रहा है उस अनजान कुरूप महिला को अदालत में जो इस क्रांति कि सबसे बड़ी वजह है।" और अचानक से उसकी नजर उस गाड़ी पर पड़ी जिसपर से उस लड़की को यहाँ पर लाया जा रहा था। उसने तुरंत कैमरामैन को उस गाड़ी की ओर फोकस करने का संकेत दिया और बोलने लगा।

"और वो देखिए। जेल से गाड़ी आ गई।" इतना बोलने के बाद रिपोर्टर गाड़ी की ओर भागा ताकि उन पुलिसवालों से और उस कुरूप लड़की से दो बातें पुछ सके। लेकिन इस दौड़ में वह अकेला प्रतिभागी नहीं था। गाड़ी को रुकने से पहले ही रिपोर्टरों और कैमरामैन ने और समाचार पत्रों के कुछ पत्रकारों ने गाड़ी को घेर लिया।

क्रांतिकारी महिलाओं की भीड़ उस गाड़ी को देखकर आक्रमक होते दिखाई पड़ी लेकिन वह नारे लगाती रही। क्योंकि अभी उन्हें न्यायाधीश के फैसले का इंतजार था। अन्यथा एक अकेली स्त्री को रौंदने के लिए यह भीड़ सिर्फ पर्याप्त ही नहीं था बल्कि उससे कहीं ज्यादा था।

एक दुकान में टीवी पर इस घटना को देखने वाले लोगों की भीड़ उमड़ी हुई थी और घरों में लोग काम छोड़कर समाचार सुन रहे थे। बॉलीवुड के थ्रिलर फिल्मों की तरह ही यह मामला पेचीदा था और बहुत सारे लोगों के दिलों में कई तरह के प्रश्न उमड़ रहे थे। टीवी पर उन्होंने देखा कि गाड़ी रुकी और सबसे पहले कुछ पुलिसवाले उतरे और फिर वो कुरूप लड़की।

भीड़ को हटाते हुए पुलिस उस लड़की को अदालत के भीतर ले गए। रिपोर्टरों और पत्रकारों की भीड़ के प्रश्न का बिना कोई उत्तर दिए। क्योंकि शायद उन्हें भी इस घटना के बारे में जानकारी पूरी नहीं थी।

अदालत में, लोग आपस में चर्चा कर रहे थे और इस मामले को अच्छी तरह से समझने की कोशिश कर रहे थे। वहाँ उपस्थित कई वकील इस केस से संबंधित कागज़ों को बार - बार पढ़ रहे थे ताकि न्यायमूर्ति न्यायधीश के समक्ष इसे अच्छी तरह से पेश कर सकें। न्यायधीश के प्रवेश करते ही सभी खड़े हो गए। आसन ग्रहण करने के पश्चात न्यायधीश ने सभी को बैठने के लिए कहा और सभी बैठ गए। उसके बाद फिर कुछ समय के लिए पूरे अदालत में खामोशी का ही माहौल रहा।

"अदालत की कार्यवाही शुरू कीजिए।" न्यायधीश ने अगले कुछ सेकेंड के बाद कहा।

उस कुरूप लड़की को कटघरे में खड़ा किया गया था। न्यायधीश के आदेश के बाद एक वकील उठे और बोलने लगें।

"Your Honor... हमारा कानून और संविधान हमेशा से ही औरतों और मर्दों को एक समान माना है। केवल आज ही के समय में नहीं बल्कि इतिहास में भी कई नारियों ने ऐसी कृतियां पाई है जिसने भारत देश का सर गर्व से ऊँचा कर दिया । झांसी की रानी जैसी बहादुर वीरांगनाओं की जननी है हमारा देश भारत। लेकिन कुछ औरतें समाज के लिए रोग होती हैं। कहते है लोग कि औरतों का दिल कोमल होता है लेकिन.., शायद इसके पास तो दिल है ही नहीं। जिसने कई लोगों का बेरहमी से कत्ल किया। आईपीसी के धारा 300, 302, 350 इसकी गुनाहों की बखान करने के लिए काफी नहीं होगा। इसने एक प्रतिष्ठत महिला परी का कत्ल किया। पुलिसवालों की हत्या की। नेताओं को भी नहीं छोड़ा और फिर यहाँ तक की अपने परिवार वालों को जिंदा जला दिया। इसके अलावा कई निर्दोष लोगों की जान ली है इसने। परी, जिसकी कातिल आज कटघरे में खड़ी है। और यही वजह है कि समाज की सारी स्त्रियां आज क्रांति पर उतर आई हैं। कई सबूत है इसके खिलाफ।"

फिर वकील ने न्यायधीश की अनुमति से अदालत में एक लैपटप मंगवाया और उसमे एक वीडियो जो कि सीसीटीवी रिकॉर्डिंग था, प्ले करके उन्हें दिखाया।

"ये सीसीटीवी रिकॉर्डिंग है जिसमें ये परी का कत्ल कर रही है और उसके बाद उसके चेहरे और शरीर को तेजाब से जला दिया।" वकील ने वीडियो प्ले करने के दौरान कहा।

बिल्कुल उनके कथन के अनुसार ही चित्रित दृश्य लैपटॉप स्क्रीन पर दिख रहा था। पहले तो उस कुरूप लड़की ने परी की गर्दन रेत दी और अगले ही क्षण उसी छुरे को उसके सीने में घोंप दी। और उसे आहिस्ता - आहिस्ता घूमाने लगी ताकि वो दर्द से तड़पे। और जब वो मर गई तो तेजाब को उसके चेहरे और पूरे शरीर पर डाल दिया। उसे लग रहा था कि उस लड़की का कत्ल करते हुए उसे किसी ने नहीं देखा लेकिन उसकी सारी करतूतों को एक गुप्त कैमरा कैद कर रहा था। तेजाब का बोतल वहीं पास में ही फोड़ दी और भाग गई। अपनी कुरूपता को ढकने के लिए जिस रंग का दुपट्टा वो ओढ़े हुए थी उस वीडियो में परी का कत्ल करके भागने वाली लड़की ने बिल्कुल वैसा ही दुपट्टा बिल्कुल उसी अंदाज में अपने चेहरे के ऊपर बाँध रखी थी।

"जाहिर है My Lord कि कत्ल करने की इसकी एक मात्र वजह थी उसकी खूबसूरती। ये कुरूप जो ठहरी। इससे लोगों की सुंदरता देखी नहीं जाती और न जाने इसने परी जैसे कितनी निर्दोष लड़कियों की हत्या की है।"

वकील की दलीलें स्पष्ट कर रही थी उसकी गुनाहों को और अब इंतजार था तो बस जज साहब के फैसले का। कुछ देर तक वो उस लड़की को देखते रहे। शायद इस लिए कि अगर उसने अपनी बचाव के लिए कोई वकील को नियुक्त किया हो तो उसे अदालत में दलील पेश करने को कहे। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। अपनी बचाव में उसने कोई वकील नियुक्त नहीं किया था और अभी वो स्तंभित कटघरे में खड़े न्यायधीश के फैसले का इंतजार कर रही थी। उसकी इस व्यवहार ने जज के हृदय में उसके बारे में जानने की उत्सुकता जगा दिया। उन्होंने इस केस के कागजों पर एक नजर डाल कर शायद उसका नाम ढूंढने की कोशिश की लेकिन किसी भी दस्तावेज़ में उसका नाम अंकित था ही नहीं। ये कैसा मुकदमा है कि गुनेहगार का नाम ही ज्ञात नहीं है? और पहली ही सुनवाई में फैसले की घड़ी आ गई?

"नाम क्या है इसका?" उन्होंने उस वकील की ओर देखते हुए पूछा।

"ये कोई नहीं जानता कि ये कौन है और इसका नाम क्या है। और ये कहाँ से आई है। क्योंकि ये किसी को अपने बारे में कुछ भी नहीं बताती। नाम भी नहीं।" यह तथ्य थोड़ा चौंकाने वाला था। यहाँ उपस्थित वो लड़की जो कटघरे में खड़ी थी उसके बारे में किसी को कुछ भी ज्ञात नहीं था। यहाँ तक की नाम भी नहीं।

"कौन हो तुम?" जज साहब ने उस लड़की से पूछा।

बिना उत्तर दिए वो खामोश रही। भले ही कोई कितना ही कुरूप और निराशावादी क्यों न हो लेकिन अपनी जिंदगी से प्रेम तो हर किसी को होता है। लेकिन ये लड़की अपने बचाव में कुछ कहने के बजाय बिल्कुल शांत किसी मूर्ति की भांति खड़ी थी।

"नाम क्या है तुम्हारा?" कुछ सेकेंड के इंतजार के बाद भी जब उन्हें कोई उत्तर नहीं मिला तो उन्होंने गुस्से से चिल्लाते हुए उससे पूछा।

"मै, औरत हूं। संस्तरण हूं मर्दों की। बिछावन हूं समाज की। कैदी हूं रिवाजों की। आजादी के सत्तर साल के बाद भी गुलाम हूं मर्दों की। और बंधी हूं समाज की बेड़ियों में।" बिना किसी तरह के भाव को प्रकट किए किसी मूर्ति के समान कटघरे में खड़ी उस लड़की ने उत्तर दिया।

"नाम क्या है तुम्हारा?"

"कितने बताऊं? कई नाम दिए हैं लोगों ने मुझे। कसबिन, कुलटा, और वैश्या।"

"तुम गुनेहगार हो?"

"हुन्न..!"

"क्या गुनाह किया है तुमने?"

"एक औरत के रूप में जन्म लेने की। अपने स्वाभिमान को पाने की। अपनी पहचान पाने की कोशिश किया है मैंने।"

जटिल भाव थे उसकी चेहरे पर। ऐसा लग रहा था कि एक प्रसिद्ध शिप्लपकर के द्वारा बनाई गई मूर्ति वेदनापूर्ण शब्दों में न्यायधीश के प्रश्नों का उत्तर दे रही है। बिल्कुल वैसे ही जैसे मूर्ति किसी भी तरह के भाव को प्रकट नहीं कर सकती उसकी लाल आँखें भावहीन थे। लेकिन उसके शब्द में छिपी वेदनाएं यहाँ उपस्थित हर किसी के हृदय को टटोलने लगा था और जल्दी ही उन्हें आंसू बहाने पर विवश करने वाला था। क्या थी उसकी कहानी? क्यों थी वो इतनी कुरूप? उसने आगे जो शब्द कहें उसने हर किसी के चेहरे का भाव ही बदल दिया। वो बोली।

"मोहब्बत..! मोहब्बत की थी मैंने। मोहब्बत..!"

एक बार फिर अगले कुछ सेकेंड के लिए अदालत में खामोशी छा गया। उसकी जिंदगी के शब्दकोश में भी मोहब्बत नाम का शब्द अंकित होगा ऐसा किसी ने सोचा नहीं था। पर ये तो गुनेहगार थी और कुरूप इतनी कि इसे देखने वाला बस इससे घृणा ही करेगा। मोहब्बत नहीं।

"अपनी सफाई में कुछ कहना चाहती हो?" जज साहब ने प्रश्न किया।

"नहीं..!" कुछ सेकेंड के चुप्पी के बाद उसने उत्तर दिया।

न्यायधीश के इतने प्रश्नों के बाद भी उसके बारे में सबकुछ अज्ञात था और उनका प्रश्न अब भी प्रश्न था। भले ही कोई कितना ही बड़ा गुनेहगार क्यों न हो, उसकी कामना यही होती है कि उसे उस गुनाह की सजा न मिले। वह अपना हर एक संभव प्रयास लगाता है अपना बचाव करने के लिए। लेकिन इस लड़की की फितरत हर किसी को उसके बारे में जानने की उत्सुकता उत्पन्न कर रहा था।

"तुम्हारे दिल में बहुत ही गहरा राज दफन है। तुम्हारे हृदय में वेदनाओ की बस्ती सजी है जो तुम्हारे शब्दों से स्पष्ट हो रहा है। गुनेहगार हो तुम। लेकिन कोई जन्म से ही गुनेहगार नहीं होता। तुम्हें न्याय मिलता।"

"कैसा न्याय?" वो न्यायधीश की बात काटते हुए बोली। "इतना घाव दिया है इस न्याय शब्द ने मुझे कि अब मै तड़प भी नहीं सकती। और अब जरूरत नहीं है मुझे इसकी। मै गुनेहगार हूं। और हर एक इल्ज़ाम कुबूल करती हूं। आप न्यायधीश हो। फैसला करो और मुझे सजा-ए-मौत दो।"

एक अपराधी जिसे न्याय की कामना ही नहीं था और खुद के लिए सजा में मौत माँग रहा था। अजीब था ना? उसके बातों ने जज की ऐसी-तैसी कर दी। वे विचार में पड़ गए कि आखिर ये चीज क्या है? उन्होंने चश्मा उतारा और रुमाल से साफ करके अपनी आँखें पोंछी। फिर चश्मा वापस पहन लिया। उसके गुनाहों से सजा वो दस्तावेज उनके सामने रक्खा था और उसकी गुनाहों को साबित करने वाला सबूत भी। लेकिन कुछ तो ऐसा था जो उन्हें फैसला सुनाने से रोक रहा था।

"मैं मानता हूं कि अदालत सबूत को मानता है जज़्बात को नहीं। हां मैं थोड़ा सा जज्बाती हो रहा हूं क्योंकि तुम्हारी बातों ने मुझे विवश कर दिया है। सारे सबूत भी है और तुमने अपना गुनाह कबूल भी कर लिया है। लेकिन अपना फैसला सुनाने से पहले मै तुम्हारी कहानी सुनना चाहता हूं। प्लीज मुझे बताओ कि कौन हो तुम?" उन्होंने कहा।

"हक़ीक़त। और कहानी। हक़ीक़त ऐसी है कि किसी को यकीन नहीं होगा और कहानी, कहानी लगेगा। आपने तो बिल्कुल सही कहा कि कोई जन्म से ही गुनेहगार नहीं होता। लेकिन मै थी। मै तो बदनसीबी के साथ पैदा हुई हूं और किस्मत का खेल तो देखिए कि आज मै अपनी ही कत्ल की सजा पाने के लिए कटघरे में खड़ी हूं।"

उसकी ये बात सबके जहन में उथल-पुथल मचा गई। यह किसी फिल्म के कहानी की तरह बनावटी लग रही थी जिसपर विश्वास कर पाना किसी के लिए भी संभव नहीं है लेकिन शायद यही सत्य था।

"वाह..! क्या दिमाग पाया है तुमने।" वकील ने ताली बजाते हुए कहा "जैसे कि यह कोई फिल्म की कहानी हो।"

"कहानी..!" वो हंसी और अपने चेहरे पर से दुपट्टा हटाई। "आज तो यही कहानी है। एक कुरूप लड़की की कथा जो केवल मनोरंजन का एक साधन थी लेकिन कोई कल्पना नहीं.., फिल्मों की तरह। परी, परी रक्खा था मेरे पिता ने नाम मेरा। उनकी लाड़ली थी। पर, उन्होंने जताया नहीं।"

"इसीलिए तुमने अपने पिता को मार डाला क्योंकि एक बेटी के रूप में तुम्हे वो स्नेह नहीं मिला जो तुम उनसे पाना चाहती थी। कुरूप हो ना? कैसे जताते अपना स्नेह?" वकील के तीखे सवालों से बेशक उसका कलेजा छलनी होने लगा था। लेकिन इसका प्रभाव उसकी आँखों में व्यक्त नहीं हो रहा था क्योंकि पहले से ही उसके दिल में अनगिनत छेद थें।

"एक लड़की होने का गुनाह और उसकी सजा थी वो। एक स्त्री होने की गुनाह में मैंने जो पाया है ईश्वर किसी को वो नाम न दे। कितनी उलझी सी है कहानी मेरी! जिंदगी की हर खुशी, हर चाहत खो दी मैंने। अपनी स्वाभिमान पाने की कोशिश में मैंने अपनी पहचान खो दी। इतना नोंचा है मेरे जिस्म को उन दरिंदों ने कि जख्म सिर्फ मेरे जिस्म पर नहीं, रूह पर भी गहरे हैं।" इतना बोलने के बाद उसने उस कम्बल को अपने जिस्म से हटा दिया जो वो ओढ़े हुई थी।

उसके हाथों पर और पीठ पर ऐसे घाव थे मानों किसी ने उसके जिस्म से चमड़ों को नोंच डाला हो।

"ईश्वर की रचना बहुत ही खूबसूरत है। अद्भुत है। लेकिन मेरी इस रूप को उस ईश्वर ने नहीं रचा। एक-एक करके मैंने इतना खोया है कि कुछ और बचा नहीं खोने को। इतना दर्द है मेरे दिल में, मेरी रूह में, कि आंसू बचा नहीं रोने को। मैं छोटी थी और मेरी बड़ी बहन सुलेखा मुझे बहुत प्रेम करती थी। हमारे गाँव में जो सरकारी मिडिल स्कूल है, जिसमें हम दोनों पढ़ने जाते थे। उस वक़्त मै चौथी में पढ़ती थी और वो छठी में।" उसने बोलना जारी रक्खा।
koushal
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Re: स्वाँग

Post by koushal »

अध्याय तीन

गर्मी का मौसम और मई-जून का महीना। गर्मी की वजह से स्कूल का टाइम मॉर्निंग हो गया था। सुबह छः बजे से ग्यारह बजे तक ही विद्यालय चलता था।

आज सुबह नीलिमा व्यस्त थी। घर के अन्य कार्यों को छोड़कर सबसे पहले उसने नाश्ता बना दिया ताकि सुलेखा और परी भोजन करके जल्दी से स्कूल चली जाएगी। उसने दोनों के लिए भोजन परोसा और थाली लेकर आंगन में गई।

"सुलेखा! परी! बेटा आओ और खाना खा लो।" थाली को नीचे रखते उसने उन दोनों को बुलाया। और चापाकल से पानी भरने लगी।

"आईं माँ ।" परी ने उत्तर दिया।

एक कमरे में परी एक आईना लिए बैठी थी और खुद को उस आइने में देख रही थी। क्योंकि उसकी बड़ी बहन सुलेखा उसकी चोटी बना रही थी। उसके बालों को बालों संग पिरोया और फिर अंततः एक रबड़ लगा दी ताकि चोटी खुल न जाय।

"लो हो गया। चलो जल्दी। अगर लेट हुई ना तो मास्टर जी के डंडे खाने पड़ेंगे।" बोलते हुए सुलेखा उठी और बिस्तर पर से अपना बैग उठा ली।

परी ने एक बार अपना चेहरा आइने में अच्छी तरह से देखी और पुष्टि की कि चोटी अच्छी तरह से बनी है या नहीं। लेकिन यह बिल्कुल ठीक था। उसकी खुद की छवि ने उसका ध्यान आकर्षित कर लिया और अगले कुछ सेकेंड तक अपनी छवि को आइने में निहारते रही।

"चल ना। आज तो तू पक्का पिटवाएगी।" सुलेखा बोली।

सुलेखा के कहने के बाद उसने आइने को बिस्तर पर रख दिया और उसने भी अपना बैग उठा लिया। शायद यह थोड़ा सा भारी था लेकिन उसने इसे बहुत ही आसानी से उठा लिया। अपने - अपने बैग उठा कर दोनो आंगन की ओर भागी। वक़्त से पहले विद्यालय पहुँचने की जल्दी में वह बिना आंगन में रुके मुख्य दरवाजे की ओर भागी। नीलिमा ने उन्हें रोका।

"अरे रुको। खाना खा कर जाओ।"

"माँ लेट हो जाएगा।" सुलेखा बोली।

"और मास्टर जी मारेंगे।" परी ने वाक्य को पूरा किया।

"तो किसने कहा पाँच मिनट और सोने को? पाँच मिनट कह कर एक घंटा सोई रही।" नीलिमा बोली।

"माँ ..!"

"मैं कुछ नहीं जानती। चलो आओ और खाना खाओ।" नीलिमा ने स्पष्ट कह दिया ।

अब उनके पास कोई और विकल्प नहीं था। और गलती तो दोनों की ही थी। नीलिमा ने तो उसे वक़्त पर जगाया था लेकिन पाँच मिनट और सोने की आलस में एक घंटा तक सोते रह गई दोनों बहनें। काम में व्यस्त होने की वजह से नीलिमा दुबारा दोनों को जगा भी नहीं पायी। दोनों खाना खाने के लिए बैठी। जल्दी - जल्दी खाना खाई और स्कूल को भागी।

गर्मी के मौसम में भी खेत लहरा रहे थे मक्के की फसल की हरियाली से। विद्यालय जाने का मार्ग उन्हीं खेतों से होकर जाता था और यह उसकी घर से करीब आधे किलोमीटर ही दूर था। एक दूसरे का हाथ थामे दोनों बहने विद्यालय को भागे जा रही थी। बड़ी होने की वजह से सुलेखा थोड़ी और तीव्र गति में दौड़ सकती थी लेकिन ऐसा करने से उसकी छोटी बहन अकेली पड़ जाती। और अगर वह वक़्त पर विद्यालय पहुँच गई और कहीं परी लेट हो गई तो संभव था कि मास्टर जी उसे दण्डित करते। ऐसा वो बिल्कुल नहीं चाहती थी। क्योंकि अपनी छोटी बहन से वह इतना प्रेम करती थी कि इसकी व्याख्या करने के लिए शब्दकोश के सारे शब्द भी कम पड़ जाएंगे।

भले ही थोड़ी देर हो जाए लेकिन दोनों बहनें एक साथ विद्यालय जाती थी और जब मास्टर जी वजह पूछते थे तो सुलेखा विलंब से पहुँचने का सारा आरोप खुद पर लेकर परी को पीटने से बचा लेती थी।

विद्यालय गाँव के अंत छोर पर स्थित था जो ग्रामीणों के घरों से लगभग कुछ ही मीटर की दूरी पर था। एक छोटी सी उपनदी के समीप स्थित विद्यालय में आसपास के पाँच से छह गाँव के विद्यार्थी अध्ययन करने आया करते थे। हालाकि यह कोई नदी नहीं था क्योंकि इसमें केवल बरसात के दिनों में ही वर्षा की पानी ही इकठ्ठी रहती थी उसके अलावा यह हमेशा सूखी ही रहती थी। अतः इसे हम सिर्फ एक जलाशय भी कह सकते है लेकिन सब इसे नदी ही कहते थे।

जब वे विद्यालय पहुँची तो प्रार्थना करने के लिए सारे विद्यार्थी परिसर में कतारबद्ध खड़ा ही हो रहे थे। अभी ज्यादा विलंब नहीं हुआ था। फुर्ती से भागते हुए दोनों ने अपने - अपने बैग को क्लासरूम में रख दिया और बिना विलंब किए कतार में शामिल हो गए।

"बच गई आज।" परी अपने मन ही में बोली।

विद्यालय के बहुत बड़े परिसर में उस विशाल पीपल के वृक्ष के नीचे सैकड़ों विद्यार्थी सुबह की प्रार्थना करने के लिए कतारबद्ध खड़े थे। क्योंकि आज शनिवार था इसलिए रूटीन के अनुसार प्रार्थना का आरंभ गायत्री मंत्र से किया गया।

ॐ भूर् भुवः स्वः तत् सवितुर्वरेण्यं

भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्…

अर्थ:- उस प्राण स्वरूप, दुःख नाशक, सुख स्वरूप, श्रेष्ठ, तेजस्वी, पापनाशक, देवस्वरूप, परमात्मा को हम अपनी अंतरात्मा में धारण करें। वह परमात्मा हमारी बुद्धि को सन्मार्ग में प्रेरित करे।

गायत्री मंत्र के उच्चारण के बाद फिर सरस्वती वंदना किया गया।

हे शारदे माँ , हे शारदे माँ

अज्ञानता से हमें तार दे माँ ..

प्रार्थना समाप्त होने के बाद सभी विद्यार्थी अपने - अपने कक्षा में जाकर बैठें। परी जो अपने वर्ग में दूसरे बेंच पर बैठा करती थी हर दिन की तरह वहीं बैठी। सुलेखा भी अपने वर्ग में थी। अब वक़्त हो गया था मास्टर जी के वर्ग में आगमन का। दिखने में तो वो इतने खडूस नहीं थे जितने वास्तव में वे थे। विद्यार्थियों को दण्डित करने में तो शायद उन्हें आंनद मिलता था तभी तो वो हर किसी को दण्डित करने के लिए बहाने ढूंढ़ते रहते थे। अंग्रेजी का विषय कौन पढ़ना चाहता है? अगर एक विद्यार्थी से पूछें तो उसकी रुचि किसी भी विषय के अध्ययन में नहीं होता। उन्हें तो बस आजादी चाहिए होता है ताकि अपने मित्रों के साथ वे पूरा दिन खेल सकें। लेकिन यह तो बस एक ख्वाइश है।

उन्होंने पिछले क्लास में कुछ मीनिंग्स दिए थे याद करने के लिए और कुछ और होमवर्क भी। वैसे तो क्लास में आने के बाद सब विद्यार्थी एक दूसरे के साथ तब तक मस्ती करते हैं जब तक की टीचर क्लास में न आ जाएं। लेकिन इस क्लास की ना बात ही कुछ और थी। अंग्रेजी के वर्ड्स को याद करना तो ठीक था, कुछ देर तक रटने के बाद याद हो जाते थे लेकिन जैसी ही मास्टर जी के सामने जाते थे सब स्वाहा हो जाता। लेकिन परी के साथ ऐसा नहीं था। वो तो बहुत ही तेज स्टूडेंट थी। और मास्टर जी के दिए गए वर्क से ज्यादा ही कर देती थी। और यही वजह था कि आज तक किसी भी टीचर ने उसे कभी दण्डित नहीं किए थे।

लेकिन सुलेखा बिल्कुल ऐसी ही थी। पढ़ने में उसका मन जरा सा भी नहीं लगता था और अगर उसका बस चलता ना तो वो कभी स्कूल आती ही नहीं। ये तो राघव का भय था और क्लास के कुछ दोस्त कि उसे स्कूल आना पड़ता था। लेकिन स्कूल आने की उसकी सबसे बड़ी वजह थी उसकी छोटी बहन परी।

क्योंकि अभी सत्र का आरंभिक दौर ही था टीचर्स स्टूडेंट्स को होमवर्क देने का कोई कसर नहीं छोड़ते। परी ने तो सारे वर्ड मीनिंग फटाफट सुना दी।

लेकिन सुलेखा की हालत खराब हो गई थी। विज्ञान का विषय था और मास्टर जी ने कुछ प्रश्नों के उत्तर याद करने के लिए दिए थे सब को। शायद यह उसकी बदकिस्मती ही थी कि मास्टर जी ने सबसे पहले उन प्रश्नों का उत्तर पूछने के लिए उसे ही खड़ा किया।

मास्टर जी :- अच्छा, तुम बताओ कि प्रकाश संश्लेषण क्या होता है?

पूरे क्लासरूम में बिल्कुल ही सन्नाटा छाया हुआ था। मास्टर जी थोड़े सख्त थे इसलिए बिना उनकी अनुमति के किसी भी विद्यार्थी को उनके सामने एक शब्द भी बोलने की हिम्मत नहीं होती थी। कल रात ही में तो पढ़ी थी उसने इस प्रश्न और इसके उत्तर को। उस वक़्त तो उसने परी को बेझिझक उत्तर बता दिया थे लेकिन अब जब मास्टर जी पूछ रहें है तो पता नहीं उत्तर याद क्यों नहीं आ रहा है।

अगले कुछ सेकेंड तक वह चुपचाप प्रश्न का उत्तर सोचती रही।

"याद नहीं है क्या?" मास्टर जी पूछें।

"किया था। अभी बताती हूं।" सुलेखा भयभीत शब्दों में उत्तर दी। प्रश्न का उत्तर नहीं देने पर मास्टर जी पीटेंगे और गलत उत्तर देने पर तो अवश्य पीटेंगे।

पढ़ाई में तो सुलेखा का तनिक भी मन नहीं लगता था लेकिन जो भी होमवर्क मास्टर जी देते थे, परी उसे बना देती थी। यह उसकी प्रबल स्मरण शक्ति का ही कमाल था कि चौथी कक्षा में होने के बावजूद वो अपनी बड़ी बहन जो छठी में थी, की होमवर्क बड़ी ही आसानी से कर देती थी।

वह अभी प्रश्नों का उत्तर सोच ही रही थी कि मास्टर जी ने प्रश्न किया कि तुमने होमवर्क तो कंप्लीट किया है ना?

"हनन..!" वह हां बोलकर उत्तर देना चाहती थी लेकिन भयभीत होने की वजह से शब्द उसके होंठों से जाहिर नहीं हुए। इसलिए उसने सिर्फ हां में सर हिलाया।

"दिखाओ।" उन्होंने कॉपी माँगी।

बस्ते से होमवर्क वाली कॉपी निकाल कर सुलेखा ने कॉपी मास्टर जी के हाथों में दिया। उन्होंने प्रश्नों का उत्तर ध्यान से जांचा। सारे बिल्कुल सही थे। उन्होंने उसकी ओर देखा। वो अब भी उसी प्रश्न का उत्तर याद करने की कोशिश कर रही थी लेकिन याद नहीं कर पा रही थी।

"अच्छा रहने दो। दूसरा प्रश्न है। तुम इसका उत्तर दे दो।" मास्टर जी बोलें।

मूर्ति की तरह खड़ी सुलेखा डर से कांपने लगी थी लेकिन वह इसे जाहिर होने नहीं देना चाहती थी। हां में सर हिलाकर उसने अपनी स्वीकृति दी। उन्होंने कॉपी का पन्ना उल्टा और एक प्रश्न का चुनाव करते हुए सुलेखा से अगला प्रश्न किया।

"अच्छा तो तुम ये बताओ कि तुम पदार्थ के बारे में पढ़ा है?" उन्होंने पूछा।

"जी।" उसने उत्तर दिया।

"याद है?"

"जी हां।"

"चलो बताओ कि पदार्थ किसे कहते है?"

"वह पदार्थ जो स्थान..." सुलेखा उत्तर देने लगी कि मास्टर जी ने टोका।

"पदार्थ..?"

"नहीं।"

"तो?"

उसे इस प्रश्न का भी उत्तर ठीक से याद नहीं था। इसलिए वह सोचती रह गई। एक भी प्रश्नों का सही उत्तर नहीं देने के कारण मास्टर जी डंडे मारकर उसकी हथेलियां लाल कर दी। वो रोने लगी। रोते देख मास्टर जी ने पीटना छोड़ दिया।

"बैठो और कल याद करके आना।" उन्होंने कहा।

लंच में सारे स्टूडेंट विद्यालय के परिसर में खेलने के लिए निकले लेकिन सुलेखा कक्षा में अकेली बैठी किताब खोलकर रोते हुए उन्ही प्रश्नों का उत्तर याद कर रही थी जिसकी वजह मास्टर जी ने उसकी हथेलियों को लाल कर दिया था।

लंच में अक्सर परी सुलेखा का इंतजार पीपल के जड़ के पास बैठ कर करती थी और जब वो आती तो वहीं पर बैठ कर दोनों साथ ही में लंच करती। लेकिन आज जब बहुत देर इंतजार करने के बाद भी सुलेखा बाहर नहीं आईं। परी ने विद्यालय के परिसर में उसकी क्लास की छात्र एवं छात्राओं को घूमते हुए देखा। तब उसने फैसला किया कि अब वो उसकी क्लास में जाएगी उसे देखने के लिए।

वो उसकी क्लासरूम में भागते हुए प्रवेश की और फुर्ती से उसके पास में बैठ गई। उसकी नजर उस किताब पर पड़ी जिससे सुलेखा प्रश्नों का उत्तर याद करने की कोशिश कर रही थी।

"दीदी, ये तो तुम्हें याद था ना?" उन प्रश्नों पर एक नजर फेरते हुए परी बोली जिसे वह याद करने का प्रयास कर रही थी।

बिना उत्तर दिए सुलेखा किताब पर छपे काले शब्दों को देखती रही। पीड़ा के कारण वह किताब को ठीक से पकड़ भी नहीं पा रही थी और अगले ही पल आंसू की धार उसकी आँखों से उमड़ पड़ी। वह रो रही थी और उसकी दोनों हाथ थर-थर कांप रहे है जैसे कि ठंड के मौसम में वह बिना स्वेटर पहने ही स्कूल चली आई है।

उसकी हाथ से किताब लेकर डेस्क पर रख दी और उसकी मुठ्ठी को खोली। उसकी हथेली बिल्कुल ही लाल थी और डंडे के निशान स्पष्ट छपे दिख रहे थे।

"मास्टर जी बहुत बुरे हैं। पर दीदी तुम्हें तो सब याद था ना? रात को तो तुम सारे प्रश्नों का जवाब बिल्कुल सही सही दे रही थी। तो क्यों मारा तुम्हें मास्टर जी ने?" परी पूछी।

"भूल गई थी। मुझे बहुत डर लगता है उनसे।" सुलेखा उत्तर दी।

छुट्टी के बाद दोनों घर पर थी। डंडे की चोट लगने की वजह से सुलेखा के हाथ में सूजन आ गया था और अब उससे घर का कोई काम भी नहीं किया जा रहा था। ऊपर से मास्टर ने साफ कह दिया था कि कल फिर से वे सारे प्रश्नों का उत्तर पूछेंगे और यदि कल फिर वो उत्तर नहीं सुना पाई तो आज से ज्यादा पीटेंगे।

स्कूल से घर जाते समय वह पूरे रास्ते रो रही थी और ऊपर से उसकी कुछ सहेलियां जो इस बात को लेकर उसका मजाक बना रही थी। पढ़ाई करना उसे बिल्कुल भी पसंद नहीं था लेकिन स्कूल जाना और मास्टर जी से मार खाना ही शायद उसकी किस्मत थी।

पानी में नीम के कुछ पत्तियों को उबाल कर नीलिमा चोट वाले अंग पर वाष्प की गर्माहट दे रही थी ताकि यह जल्दी ठीक हो जाय। वह उसका उदास चेहरा बिल्कुल भी नहीं देख सकती थी और परी को देखकर तो ऐसा लग रहा कि भले ही चोट सुलेखा के हाथों पर थी लेकिन दर्द उसे हो रहा हो।

"लेकिन दीदी को सबकुछ याद तो था फिर कैसे भूल गई? रात में तो तुमने मुझे सारे प्रश्नों के उत्तर फटा-फट बता दी थी?" परी सुलेखा को प्रश्न भरे नज़रों से देखते हुए पूछी।

शाम होने को था और राघव खेत के कुछ काम निपटा कर अभी घर पर आया कि उसने देखा कि सुलेखा रो रही है और नीलिमा उसके हथेलियों पर मरहम का लेप लगा रही है।

"आज क्या हुआ इसे? गिर गई थी क्या कहीं पर?" राघव भीतर प्रवेश करते हुए पूछा।

"नहीं बापू। मास्टर जी ने आज फिर से पीटा है दीदी को।" परी ने उनकी ओर देखते हुए उनके प्रश्न का उत्तर दिया।

राघव घर में प्रवेश करते ही सीधा आंगन में चपाकल के पास गया और हाथ-मुंह धोने लगा। "क्यों मारा आज?" बाल्टी से पानी निकालकर अपने चेहरे पर छिड़कते हुए उसने पूछा।

"बापू, मुझे सब याद था.. लेकिन मास्टर जी के सामने सबकुछ भूल गई। आप कहो तो मैं अभी सबकुछ सुना दूं।" सुलेखा बोली। "बापू। मुझे नहीं जाना है स्कूल पढ़ने के लिए।" डरते हुए उसने अपना निर्णय अपने पिता के सामने रख दिया।

यह बोलने के बाद वह सोचने लगी कि कहीं अब बापू उसकी पिटाई न कर दें। वह उसे शिक्षित बनाना चाहते थे और उसके पिता तो सबसे अलग थें। बहुत सारे लोग तो यह कहते हैं कि बेटी को पढ़ाने की क्या आवश्यकता है? लेकिन फिर भी लोगों की बातों और फिजूल की सलाहों को अनदेखा करते हुए वह उसे पढ़ाना चाहते हैं, क्योंकि शायद वह अशिक्षित होने के दुर्भाग्य से पीड़ित थे और अपने संतानों को इस पीड़ा में बिल्कुल भी देखना नहीं चाहते थे। लेकिन सुलेखा का मन पढ़ाई में नहीं बल्कि सिलाई - कढ़ाई में लगता था।और इस तरह के कलाओं को वह अतिशीघ्र सीख जाती थी। और चित्रकारी में तो उसके मुकाबले का कोई था ही नहीं। बस कुछ सी समय में वह वस्तुओं की स्पष्ट चित्र बना देती थी और जिसे देखकर ऐसा लगता था कि यह कैमरे से खींची गई है।

डरते हुए उसने तो अपना निर्णय बापू को बता दिया। जिसपर राघव का प्रतिक्रिया अजीब थी। शायद वह जो चाहता था वह संभव नहीं था लेकिन अपनी कामना पूरी करने के लिए वह अपनी ही बेटी पर दबाव डाले: हालाकि यह ख्याल उसके जहन में आ रहा था और वह उसे उसकी इस उद्दंडता के लिए डांटना और पीटना भी चाहता था लेकिन उसने ऐसा नहीं किया और बिना कुछ बोले ही अपने कमरे में चला गया।

कुछ शब्दों से निर्मित सुलेखा के एक वाक्य ने राघव को नाराज कर दिया था लेकिन उसमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि इस बात के लिए वह उनके पास जाकर उनसे माफी माँ गे। अब क्या होने वाला था और अब राघव की प्रतिक्रिया कैसी होने वाली थी, कोई नहीं जानता था लेकिन सुलेखा सोचने लगी कि उसके पिता कमरे के भीतर से छड़ी लाने गए हैं ताकि वह उसकी इस दुस्साहस के लिए उसे दण्डित कर सकें। और यह ख्याल उसकी धड़कन की गति को बढ़ाने लगा।

नीलिमा उठी और राघव के कमरे में गई ताकि वह राघव के गुस्से को शांत कर सके। राघव कमरे में बैठा हुआ था और गुस्से का भाव उसके चेहरे पर स्पष्ट था। शायद उसके जहन में विचारों के मध्य घमासान युद्ध चल रहा था कि सुलेखा की इस उद्दंडता भरे निर्णय को सुनकर वह क्या निर्णय ले जो सभी के लिए बेहतर होगा। तभी नीलिमा भी कमरे में चली आई। उसके कंधे पर हाथ रखते हुए उसके समीप बैठ गई और बोली कि मैं रोज अपनी बेटी को रोते हुए नहीं देख सकती।

नीलिमा की बात सुनकर राघव ने उसकी ओर देखा। वह भावुक थी और उसका तर्क सुलेखा की निर्णय को समर्थित कर रहा था।

"मैं भी। और इसलिए मैंने निर्णय लिया है कि इस बारे में मैं एक बार मास्टर जी से बात करूंगा।"

"उनसे क्या बात करेंगे आप?" उसके इस निर्णय के अर्थ को वह ठीक से समझ नहीं पाई और अचंभित होते हुए उससे पूछी।

उसी दिन सूर्यास्त से बस कुछ देर पहले ही राघव मास्टर जी के घर पर उनसे मिलने गया। अपने निर्णय के अनुसार एक बार उनसे बातचीत करने आया था। मास्टर स्कूल में पढ़ाने के साथ ही कुछ बच्चों को विशेष रूप से पढ़ाते भी थें लेकिन राघव के आने से पहले ही उन्होंने सभी विद्यार्थियों को छुट्टी दे दिए थे।

"प्रणाम मास्टर जी।" बोलते हुए वह उनके ओर कुछ और कदम बढ़ा।

"प्रणाम। प्रणाम। आओ राघव। बोलो कैसे आना हुआ?" मास्टर जी और राघव के मध्य बहुत समय से लगाव था। मास्टर जी के बहुत सारे खेतों में राघव एक मजदूर के रूप में कार्य किया करता था और साथ ही साथ घर पर भी कोई ऐसा काम राघव के लिए होता था तब वह उसे बुलाते थे और समय पर मजदूरी भी देते थे।

वैसे तो उस विद्यालय में पढ़ाने वाले अन्य सभी शिक्षक क्षेत्र के अन्य हिस्सों से प्रतिदिन आते थे लेकिन विज्ञान पढ़ाने वाले ये मास्टर जी इसी गाँव के निवासी थें जिन्होंने सुलेखा को पीटा था। अचानक से राघव के आने की वजह तो उन्हें ज्ञात नहीं था और उन्हें अच्छी तरह से यह याद था कि उन्होंने राघव को नहीं बुलाया था। ना ही अभी उनके पास उसके लिए कोई काम है और उसकी जो भी मजदूरी बनती थी उन्होंने उसकी भरपाई भी कर दी थी, तब यह अचानक से यहाँ पर क्यों आया है? - वे मन ही मन विचार कर रहे थे।

राघव उनके पास गया लेकिन उनके कुछ कदम पीछे ही खड़ा रहा।

"वो मास्टर जी.. मेरी बेटी सुलेखा..." राघव ने अभी अपना वाक्य पूरा नहीं किया था कि मास्टर जी उसके बात को काटते हुए बीच में बोल पड़ें।

"थोड़ा ध्यान दिया करो उसपर... पढ़ने में एकदम कमजोर है। जो होमवर्क देता हूं वो तो सही - सही बना लेती है लेकिन जब कुछ पूछता हूं तो कुछ नहीं बताती।" उन्होंने सुलेखा की स्थिति राघव के सामने स्पष्ट कर दी।

"जी मास्टर जी। लेकिन आजकल बेटियों को कौन पढ़ाता है? लेकिन फिर भी मैंने सोचा कि थोड़ी बहुत पढ़ लेगी और उसके बाद फिर एक अच्छा लड़का देखकर उसकी शादी करा दूंगा। कोई मेरी बेटी को अंगूठा छाप तो नहीं कहेगा। लेकिन..." कहते हुए वह संकोच करने लगा। क्योंकि परिस्थिति कुछ ऐसी थी कि उसकी बेटी स्वयं पढ़ने के लिए इच्छुक नहीं थी बल्कि वह कढ़ाई - बुनाई जैसी चीजें सीखना चाहती थी। हां, इसमें कोई बुराई नहीं था लेकिन राघव चाहता था कि आठवीं के बाद वह ये सब सीखे।

"ये बात तो तुमने सौ फीसदी सही कही राघव। बेटियों को पढ़ाना बहुत ही अनिवार्य है। बेटियां तो चिराग होती है, जो अगर शिक्षित हो तो आने वाली कई पीढियों को रौशन कर देती है। लेकिन समस्या यह है कि लोग बेटियों को पढ़ाना ही नहीं चाहते। लेकिन मुझे तुम पर गर्व है राघव। तुम अपनी दोनों बेटियों को खूब पढ़ाना और उन्हें शिक्षित बनाना।" उन्होंने कहा।

"वो तो है मास्टर जी। लेकिन मेरी बड़ी बेटी सुलेखा आज मुझसे कह रही थी कि वो पढ़ना नहीं चाहती। वो कह रही थी कि मैं उसका पढ़ाई छुड़ा दूं और स्कूल से नाम कटा दूं।"

"लेकिन क्यों राघव?" मास्टर जी ने आश्चर्य से पूछा।

"वो आपसे बहुत डरती है। मैं आपसे विनती करने आया था कि कृपया कर उसे पिटिएगा मत। मैं चाहता हूं कि वह कम से कम आंठवी तक पढ़ ले। लेकिन जिस तरह से आप याद न करने पर पीटते हैं, शायद इसी कारण से वह पढ़ने से इंकार कर रही है।" राघव ने स्पष्ट किया। "अब वो बड़ी हो गई है और मै सोच रहा हूं कि अगले वर्ष उसका विवाह कर दूं। लेकिन तब तक वह स्कूल में कुछ ना कुछ पढ़ने के लिए सीख ही जाएगी।" उसने बात पूरा किया।

उसके बात पर मास्टर जी कुछ देर तक मन ही मन में कुछ विचार करने लगें।

"अच्छा ठीक है राघव। जैसा तुम कहो। अब मै उसे कभी नहीं पीटूंगा बल्कि प्यार से समझाऊंगा। मुझे विश्वास है कि फिर उसका मन पढ़ाई में लगने लगेगा। आखिर वह भी तो मेरी बेटी जैसी ही है।" हंसते हुए उन्होंने बात पूरा किया।

राघव के जहन में जो आया उसने वो कर दिया। संभव था कि अब सुलेखा की रुचि पढ़ाई में जाग जाए। वैसे तो अब वह बारह की हो गई थी लेकिन उस समय में इस उम्र में ही लगभग सभी लड़कियों का विवाह कर दिया जाता था। खास करके इन ग्रामीण क्षेत्रों में। राघव अभी से तैयारी में जुट गया था। समय से ज्यादा काम करना ताकि मजदूरी के रूप में कुछ ज्यादा धन अर्जित हो जाय। किस्मत में गरीबी के कैद में ही संघर्ष करना लिखा हुआ था, तभी तो वह बचपन से ही जानवरों की तरह कठिन परिश्रम करता आया था। और अभी उसे और ज्यादा ही मेहनत करना था।

रविवार होने की वजह से स्कूल में तो छुट्टी था लेकिन घर पर बहुत ज्यादा काम। सुबह से सभी सदस्य बिल्कुल ही व्यस्त थे। राघव अपने पिता के साथ सूर्योदय से पहले ही खेत चला गया था और दोनों बहनों को दलान में रहने वाले दोनों गायों को अच्छी तरह से धोने का और उन्हें भोजन कराने का कार्य सौंपा गया था। नीलिमा अपनी सास के साथ घर के कार्यों में व्यस्त थी।

कुएं से पानी खींचकर सुलेखा बछड़े के पास गई। उन्होंने अब तक एक गाय को अच्छी तरह से धो दिया था और उसे चारा भी दे दिया था और वो भोजन करने में व्यस्त थी। अब बारी थी उस बछड़े को धोने की जो सिर्फ दस दिन का ही था। बहुत ही प्यारा, काले - भूरे रंग का।

"दीदी, मुझे लगता है कि हमें इसका एक अच्छा सा नाम रखना चाहिए।" बछड़े के कंधे पर हाथ सहलाते हुए परी बोली।

"लेकिन क्या?" सुलेखा उसकी बात पर सहमत थी लेकिन उसके पास बछड़े को पुकारने के लिए कोई बेहतर नाम का सुझाव नहीं था।

परी विचार करने लगी। और सुलेखा बछड़े की पीठ पर पानी डालकर उसे धोने लगी। लेकिन इससे पहले कि परी के जहन में उस बछड़े के लिए नाम का कोई बेहतर सुझाव आता नीलिमा ने उसे बुलाया।

"आ रही हूं माँ ..!" बोलते हुए वह घर की ओर भागी जो दलान के बिल्कुल ही पास में था। सूर्य की रौशनी तेज थी और दिन थोड़ा गर्म। हालाँकि अभी दोपहर तो नहीं हुआ था लेकिन नीलिमा ने परी को राघव और उसके पिता के लिए भोजन लेकर जाने के लिए बुलाया था।

एक पोटली में कुछ गर्म रोटियां और सब्जी बाँध कर नीलिमा ने सुलेखा की ओर बढ़ाते हुए बोली कि अच्छे से ले जाना। और पानी भरा हुआ एक बर्तन परी को दे दी। दोनों बहनें भोजन और पानी लेकर खेत की ओर ही जा रही थी। खेत थोड़ा दूर था और धूप तेज, लेकिन दोनों कहीं रुक भी नहीं सकते थे क्योंकि वे जानते थे कि देर से पहुँचने पर दादा जी बहुत क्रोधित होंगें।

खेतों में हरियाली थी क्योंकि इनमें मक्के जैसे कई फसल लगाए गए थे। कुछ किसान सिंचाई में व्यस्त थे तो कुछ फसल की निगरानी करने में। तो कुछ खेत के किनारे पर बैठ कर भोजन कर रहे थे।

जब दोनों दादा जी के पास पहुँची तो देखी कि वे सो रहें है और राघव नहीं है। खेत के पास ही एक बहुत बड़ा पीपल का वृक्ष था उसी के नीचे। मक्के का फसल लहलहा रहे थे। दोनों दादा जी के पास गई।

"दादा जी.." परी उन्हें बस एक ही बार पुकारा कि वो उठ बैठे। उसने उन्हें पानी दिया और सुलेखा भोजन परोसने लगी। हाथ - मुंह धोने के बाद वे बैठ गए और सुलेखा ने थाली उनके सामने रख दिया। वो अब भी अपने बाबा को ढूंढ रही थी।

"वो बाजार गया है। वहीं खा लेगा।" दादा जी ने राघव के बारे में बताया ताकि वो उसे ढूंढना बंद कर दे।

मक्के के पौधों में फल निलक आए थे और परी का मन भुट्टा खाने का करने लगा। इसलिए उसने अपने दादा जी से भुट्टा खाने की इच्छा जाहिर करी।

दादाजी अभी निवाला बना कर खाने ही वाले थे कि परी बोली कि दादाजी मुझे भुट्टे खाने है। हालाँकि परी के जन्म को आज लगभग दस वर्ष हो गए थे लेकिन कड़वाहट अब भी उनके ह्रदय में था। वंश को बढ़ाने के लिए और बुढ़ापे की लाठी के लिए उन्हें जिस सहारे की चाहत थी वह पूरी नहीं हुई थी और उसके बाद ना ही नीलिमा को कोई और बच्चा हुआ। घर में दूसरी बार भी पुत्री के जन्म लेने की वजह से कड़वाहट अब ना ही सिर्फ उनके जुबान का स्वाद बन गया था बल्कि उनके शरीर में रक्त दौड़ने लगा था। जो निवाला वह खाने वाले थे, गुस्से से उन्होंने उसे थाली में पटक दिया और थाली को दूर फेंकते हुए झल्लाते हुए बोलें कि जा खा ले। जैसे कि तेरी बाप का हो।

उनका कहने का तात्पर्य था कि जिस जमीन पर उन्होंने मक्के की खेती की थी वह उनका अपना नहीं था। और इसलिए मुनाफे का कुछ हिस्सा उन्हें खेत के मालिक को भी देना पड़ेगा। ऊपर से लागत और मेहनत भी इन्हीं की थी। इस अनुसार वह घाटे में जा रहे थे लेकिन अब जब उन्होंने खेती कर ही ली थी तो उनके पास कोई शेष विकल्प भी तो नहीं था। ऐसे में परी का चेहरा तो उन्हें जरा सा भी नहीं भाता था। उन्हें पोते की ख्वाहिश थी लेकिन भगवान ने उनकी झोली में एक नहीं बल्कि दो दो पोतियां दे दिया।

एक लड़की के रूप में जन्म लेने की सजा में परी और उसकी बड़ी बहन को घर में किसी से भी स्नेह नहीं मिलता था। बस उसकी माँ ही थी क्योंकि वह बेटी और बेटे में भेदभाव नहीं करती थी। एक राघव था जो उन्हें स्नेह करना चाहता तो था लेकिन अपने माता और पिता के जिद्द के सामने विवश हो जाता लेकिन जब कभी भी उसे मौका मिलता वह उन दोनों को स्नेह करता था।

बचपना यादगार होने का एक और कारण दादा और दादी के किस्से सुनना भी होता है। लेकिन वो दोनो इस सुख से बंचित थे। लेकिन राघव की माता और पिता पर संतान के रूप में पुत्र की लालसा इतनी थी कि जिसका कोई वर्णन ही नहीं था और इसीलिए तो वह पड़ोस के छोटे बच्चों को अपने पोतियों से ज्यादा स्नेह करते थे। पड़ोस के लड़कों को बहुत प्यार करते थे और कुछ को तो वह खिलौने खरीदने के लिए पैसे भी देते थे लेकिन जब सुलेखा और परी उनसे कुछ माँ गती तब दोनों को बस उनका डांट ही मिलता था।

इस तरह से दादाजी के व्यवहार करने की वजह से परी रो पड़ी थी। सुलेखा ने बर्तनों को समेट लिया और परी को लेकर वापस घर चली आई। जब वह घर पहुँची तब नीलिमा आंगन में बैठी गेंहू से कंकड़ छांट रही थी। पहली नजर में ही उनसे परी का मायूस चेहरा पढ़ लिया और अनुमान लगा ली कि संभवतः हर बार की तरह इस बार भी दादाजी ने ही परी को डांटा होगा। लेकिन फिर भी अपने अनुमान की पुष्टि करने के लिए वह परी से पूछी।

"क्या हुआ मेरी गुड़िया को? मेरी परी रो क्यों रही है?"

सुलेखा बर्तन को चपाकल के पास रखने चली गई और परी नीलिमा के पास जाकर उससे लिपट गई। "माँ , अब से मैं नहीं जाऊंगी दादाजी को भोजन देने।" वह बोली।

"क्या हुआ परी?" नीलिमा ने परी से वजह पूछी लेकिन वह उत्तर देने के बजाय रोटी रही तब उसने सुलेखा से पूछा। "क्या हुआ सुलेखा? दादाजी ने डांटा क्या?"

"हां माँ, उतना बड़ा खेत है। एक दो भुट्टे हम खा लेते तो क्या नुकसान हो जाता? वो बहुत बुरे हैं। हमसे कोई प्यार नहीं करता... सिवाय आपके। मैं भी नहीं जाऊंगी उनके पास।" नीलिमा के प्रश्न का उत्तर देते हुए वह उसके पास आ बैठी।

"वो तो हैं ही खडूस। लेकिन हमें क्यों उदास हो? मैं तुम्हारे बाबू को बुलूंगी भुट्टे लाने के लिए और साथ ने आम भी। फिर खा लेना। चलो अब हंसो। इतनी सी बात पर कौन उदास होता है?" नीलिमा ने दोनों को तसल्ली दी और हंसने को बोली। लेकिन उसकी बात मानी जाएगी या नहीं यह उसे भी नहीं पता था।

"खडूस दादाजी।" बोलते हुए परी खिलखिला उठी। सम्मोहित करने वाला उसका वो मासूम चेहरा जिसपर खिलखिलाती हुई हंसी की लहर दौड़ पड़ी, ने नीलिमा और सुलेखा को भी हंसने पर मजबुर कर दिया।।
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