स्वाहा

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SATISH
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Re: स्वाहा

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रेखा पदचिन्हों को घूरने लगी थी, वह बोली- "आपने ठीक पहचाना भाई! यह निशान वाकई एक ही पैर के हैं।

लेकिन अब एक सवाल उठता है।"

"वह क्या...?"

"अगर यह शख्स एक टांग का है तो, फिर वह किसी बैसाखी या लाठी के सहमती चलता होगा...।"

"हां साफ जाहिर है ।" अमर की मुण्डी सहमति में हिली।"

"तो फिर पैर के साथ वैसा कोई निशान क्यों नहीं है?"

"हां, वाकई!" अमर की मुण्डी फिर हिली- "यह बात भी ध्यान देने लायक है।"

"भाई! ऐसा भी मुमकिन है कि उसकी लाठी या बैसाखी खून से न सनी हो?" रेखा ने अपने सवाल का खुद ही

जवाब दिया। "हां, यह भी हो सकता है।" अमर सोचपूर्ण लहजे में बोला ।

इस मकान की कहानी सुनाते हुए पिछले मकान मालिक वासुदेव ने एक मलंग किस्म के शख्स का जिक्र किया धा- जो चांदनी रातों में छ: फुट ऊंची चारदीवारी पर एक टांग से नाचा करता था। इस बंगले की यह अविश्वसनीय कहानी उसी रहस्यमय मलंग से शुरू हुई थी। इस वक्त वही एक टांग वाला मलंग अमर को याद आ गया था। उसने चाहा कि वो रेखा का ध्यान उस मलंग की तरफ दिलाए लेकिन वह कुछ सोचकर रह गया।

अब यह मामला ज्यादा संगीन हो गया लगने लगा था। लेकिन स्थिति की इस गम्भीरता को वह रेखा के सामने जाहिर

नहीं करना चाहता था।

अमर ने माया को हुक्म दिया- "माया! सारे काम छोड़कर यह खून साफ कर दो...!"

"साहब जी ! अगर आप पिंजरे से उल्लू को निकालकर बाहर फेंक दे तो मैं यह पिंजरा भी धो दूं।" माया बोली ।

"ठीक है...।" अमर समझ गया कि माया उस मरे हुए उल्लू से डर रही है।

वह फौरन आगे बढ़ा-पिंजरे को पैर से जरा आगे खिसकाया। फिर सूखे साफ फर्श पर बैठकर उसने पिंजरे का दरवाजा खोला और हाथ डालकर उल्लू का फैला हुआ पंख पकड़कर उसने उल्लू को बाहर खींच लिया। उसने सोचा था कि वो इस मरे हुए उल्लू को बराबर वाले खाली प्लाट की तरफ उछाल देगा...।

लेकिन... वह अभी उल्लू का पंख पकड़कर खड़ा ही हो रहा था कि एकाएक जबदस्त फड़फड़ाहट की आवाज आई। उल्लू का पंख अमर के हाथ से निकल गया।

यह देख सब सन्नाटे में आ गए।

वह उल्लू अमर के हाथ में बुरी तरह फड़फड़ाया था। और फिर जैसे ही अमर की गिरफ्त ढीली हुई, उल्लू उसके हाथ से निकलकर उड़ता हुआ छत की तरफ उड़ गया था।

रेखा चींख मारकर पीछे हटी। माया भी बुरी तरह चिल्लाई। अमर ने अपने हवास पर काबू रखा और एकदम कहकहा लगाकर हंसा।

"कमबख्त जिंदा था।"

"यह... यह क्या हुआ?" रेखा चकरा गई थी।

स्वाह "कुछ नहीं हुआ...।" अमर मुस्कराते हुए बोला- "हाथों के तोते उड़ने की बजाये आज हाथ के उल्लू उड़ गये।” " आपको मजाक सूझ रहा है-मेरी जान पर बनी हुयी है। "

माया खून पोंछने में लग गई थी। अमर ने रेखा की बात पर कोई तवज्जो न दी और कुछ कहे बिना अपने कमरे की तरफ चल दिया।
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Re: स्वाहा

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और यह भयावह स्वप्न-सा घटना क्रम यहीं खत्म न हुआ था।

यह दूसरे दिन शाम की बात है। रेखा सामने बंगले में अपनी सखी रजनी से मिलने गई हुई थी। अमर अपने ऑफिस

में था। घर पर गंगा मौसी और माया के अलावा कोई न था।

और यह वही वक्त था कि घर की कॉलबेल बजी ।

माया ने दरवाजा खोलकर बाहर झांका तो उसकी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की सांस नीचे रह गयी। सामने,

बरामदे में, वही रहस्यमय व्यक्ति खड़ा था और इस वक्त वो जैसे गुस्से में था। माया को देखत ही वह सर्द लहजे में बोला-

"हमारा परिन्दा वापस कर दो... 1"

परिन्दा... अच्छा वह उल्लू..। वह तो जी मर गया...।" माया ने जल्दी से बात पलटी, "नहीं जी... वो तो... वो तो ज उड़ गया...।"

" शीना को एक अमानत दी गई थीं-बड़े अफसोस की बात है कि वह उसकी हिफाजत न कर सकी।"

"हैं, जी...।" माया मुंह खोलकर रह गई।

".... वह आजाद हो गया है और यह कोई अच्छी बात नहीं....।" उस रहस्यमय व्यक्ति ने बदस्तूर तीखे लहजे में कहा- " अपनी शीना बीबी को बुलाओ।"

"हैं जी...! मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा हैं। आप क्या कह रहे है ?" माया बौखला गई थी।

"तुम्हारी रेखा बीबी कहां हैं?"

"दो तो जी घर में नहीं हैं।"

"जानता हूँ। उनसे कहना कि अब मेरी मुलाकात उनसे रेगिस्तान में होगी। लाओ, यह खाली पिन्जरा मेरे हवाले कर हो...।"

" अच्छा जी, आप ठहरें... मै लाती हूँ।"

माया बड़ी तेजी से पिंजरा उठा लाई। वह करीब ही दीवार के साथ रखा था "यह लो, जी...।"

उस रहस्यमय व्यक्ति ने पिंजरा अपने हाथ में ले लिया। फिर हाथ ऊंचा करके पिंजरे को बड़ी हसरत भरी नजरों से देखा और जाने के लिए पलटा ।

"वो जी... आपका नाम क्या है? बीबी से मैं क्या कहूँगी कि कौन आया था...।"

"काला चिराग ...।" उस रहस्यमय व्यक्ति ने जाते-जीते मुड़कर कहा- "मेरा संदेशा देना मत भूलना। "

"नहीं जी...।" माया ने यकीन दिलाया।

"हां, उनसे कहना कि कोई रेगिस्तान में उनका इन्तजार कर रहा हैं... यहां वक्त बर्बाद न करें...।"

" अच्छा जी, कह दूंगी।" माया धूक निगलते बोली।

वह रहस्यमय व्यक्ति, खाली पिंजरा घुमाता हुआ तेजी से आगे बढ़ गया। माया ने फौरन दरवाजा बन्द कर लिया। दरवाजा बन्द करके वह कुछ देर खामोशी से खड़ी रही। फिर उसने दरवाजा खोलकर बाहर झांका। वह जा चुका था।

माया तत्काल बाहर निकली और सड़क पार करके सामने वाले वंगले के दरवाजे पर पहुंची--कॉल बेल दवाई
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Re: स्वाहा

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दरवाजा रजनी के नौकर ने खोला ।

"हां... क्या है?"

"बीबी कहां है। रेखा बीवी...!"

" अन्दर हैं...।" नौकर ने कहा और एक तरफ हटते माया को अन्दर आने को रास्ता दे दिया।

रेखा ने माया को भीतर आते देखा तो उसका माथा ठनका। उसने तेजी से पूछा-

"क्या हुआ, माया ? खैर तो है?"

"हां जी, बिल्कुल खैर है, वो जी आपको बड़ी बीबी बुला रही है।” "रेखा उठ खड़ी हुई। मैं चलती हूँ, रजनी...तुम आना...।"

रजनी उसे गेट तक छोड़ने आई।

रेखा और माया सड़क पार कर अपने बंगले के गेट के करीब आ गई तो, माया ने उसके निकट होते बड़ी राजदारी से कहा-

"बीबी, वो आया था?"

"वो काले कपड़ों वाला?" रेखा ने ठिठकते हुए पूछा।

"हां जी, पर आपको कैसे पता चल गया...।"

"तुम्हारी शक्ल देखकर। हवाईयां जो उड़ रही हैं। "

"वो जी खाली पिंजरा ले गया है और आपके लिए एक सन्देशा दे गया है।" और माया ने उस रहस्यमय व्यक्ति के साथ हुई बातें सविस्तार कह सुनाई।

यह सब सुन रेखा का रंग उड़ गया। एक अज्ञात-सा भय उसके दिमाग पर छा गया था। वे बातें करते हुए ही अन्दर

आए थे। अपने कमरे में आकर रेखा एक कुर्सी पर बैठ गई तो माया बैड के कोने पर आ बैठी।

रेखा की समझ में नहीं आ रहा था यह रहस्यमय व्यक्ति है कौन, जो अचानक ही कहीं से प्रकट हो जाता था। नाम भी बड़ा अजीब था। काला चिराग भला यह भी कोई नाम हुआ। चिराग से तो रोशनी फूटती है और रोशनी काली कब होती है।

वह सन्देशा दे गया था कि अब रेगिस्तान में मुलाकात होगी। पर रेखा को किसी रेगिस्तान में जाने की क्या जरूरत थी। अगर कोई उसकी इन्तजार किसी रेगिस्तान में कर रहा है तो फिर जिन्दगी भर इन्तजार ही करता रहेगा। वह यहां आराम से रह रही थी उसे रेगिस्तान में भटकने की भला क्या जरूरत है।

वह यह सोच रही थी और नहीं जानती थी कि वो जो सोच रही है गलत सोच रही है। आने वाला वक्त उसके लिए जो. ॥ जाल बुन रहा था उस जाल में फंसकर उसे न जाने कहां-कहां भटकना था।

माया रेखा को खामोश बैठा देखकर खड़ी हो गई, बीबी, में नीचे जा रही हूँ-जरा किचन देखूं ।

माया के नीचे चले जाने के बाद रेखा कुर्सी से उठी और टेर्लोफान उठाकर बैड पर ले आई और आलती पालती मारकर बैठ गई। उसने अमर का नम्बर लगाया और रिसीवर कान से लगा लिया। दो घंटिया बजने के बाद किसी ने रिसीवर उठाया।

उधर से 'हैलो" कहने वाला व्यक्ति अमर नहीं था उसका असिस्टेन्ट आनन्द था।
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Re: स्वाहा

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"भाई कहां हैं?" रेखा ने उसकी आवाज पहचानकर पूछा था।

आनन्द भी रेखा की आवाज को पहचानता था, सो फौरन समझ गया कि किस भाई को पूछा जा रहा है। उसने जवाब दिया- "जी वह तो चले गए। "

"कहां...?"

" किसी साहब से मिलने गए हैं-वहां से घर चले जायेंगे।"

"अच्छा, ठीक है।" कहकर रेखा ने रिसीवर रख दिया। बाहर अब बारिश होने लगी थी।

रिसीवर रखने के बाद वह यूं ही दरवाजे को देखती रही। दरवाजे को देखते-देखते उसे यूं महसूस हुआ जैसे कोई अन्दर आया है। यह उसकी अजीब आदत थी। उसे बैठे- बैठाये ही अपने गिर्द किसी दूसरे की मौजूदगी का अहसास हो रहा था। किसी अमानवीय प्राणी की मौजूदगी का अहसास।

इस गैर इन्सानी प्राणी के बारे में सोचते-सोचते उसका ध्यान उस बन्द कमरे की तरफ चला गया। फिर वे अख्तयार ही ललक उठी कि वो उठे, उस कमरे का ताला खोले और उस कमरे के अन्दर चली जाए। अंदर जाकर देखे तो सही कि उसमें क्या है?

उल्लू का खून, कदमों के निशान, घायल उन्तु का फड़फड़ाकर उड़ जाना, बड़े दादा का लिफाफा, बंद कमरा, उसके

हैण्डल पर लटका हुआ ताबीज। इन सब बातों ने उसे सख्त उलझन में डाल दिया था। उसकी जिज्ञासु प्रवृत्ति उसे इस

के लिए उकसा रही थी कि वह किसी तरह उस काली दिवारों वाले कमरे में दाखिल हो जाए। उसे तो यह भी मालूम नहीं था कि उस कमरे के ताले की चाबी किसके पास है। उसने इस सिलसिले में गंगा मौसी से बात करने की सोची। वही चाबी के वारे में बता सकती थीं।

वह गंगा मौसी के कमरे में पहुंची।

उसने देखा कि अमर भी मौसी के साथ बैठा उनसे बात कर रहा है। उन दोनों ने ही मुस्कराकर जैसे रेखा का स्वागत किया था।

गंगा मौसी बोली " आओ, रेखा...!"

"बारिश का मजा ले रही हैं, आप...?" अमर बोला था।

"हां, भाई! आप जानते ही है मुझे बारिश कितनी अच्छी लगती है। जी चाहता है, ऐसी बारिश में नहाऊं.....!"

"तो नहाओ, किसने रोका है...।"

"अरे, अमर कैसी वात कर रहे हो।" मौसी ने विरोध किया- "हर्गिज नहीं, बेटी! बीमार हो जाओगी।"

"सुन लिया भाई।" रेखा ने हंसकर कहा।

मौसी विषय बदलते हुए बोली थी- मअच्छा हुआ, बेटी तुम आ गई। मैं तुम्हें बुलाने वाली थी।" मौसी एकाएक ही संजीदा नजर आने लगी थीं, में अभी अमर से तुम्हारी ही बात कर रही थी।

"क्या मौसी?"

"वह माया बता रही थी कि वो मरजाना काले कपड़ों वाला फिर आया था अपना उल्लू वापस लेने।"

अमर भी हालात से आगाह था, उसने हंसते हुए ही टिप्पर्णा की थी "उल्लू तो उसे मिला नहीं, खाली पिन्जरा ल गया और आईदा प्रकार का वक्त दे गया। "

''जी भाई! वो कह गया है कि रेगिस्तान में मिलेगा...।" रेखा ने सहज भाव में जवाब दिया- "जाने कौन शख्त है
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Re: स्वाहा

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मैने तो आज तक उसे देखा नहीं...।"

"अब तो उससे मिलने के लिए रेगिस्तान का ही रूख करना पड़ेगा।" अमर बदस्तूर शोखी से बोला था।

"भगवान न करे। अमर तुम बेकार की बेहूदा बातें बहुत करते हो...।" मौसी ने अमर को प्यार से डांटा।

“भाई, एक बात तो बताओ।" रेखा अमर को निहारते हुए बोली।

“जरूर... क्या बात है?"

"उस काली दीवारों वाले कमरे की चॉबी कहां है?" रेखा ने पूछा।

"क्यों खैरियत तो है?" मौसी एकदम सहम गई- "रेखा बेटी! यह अचानक तुम्हें चाबी का ख्याल कैसे आया?" "बस, वैसे ही पूछ रही हूँ?" रेखा सहज भाव में बोली - "कहा है चाबी भाई । "

“चाबी कहां है, मुझे खुद याद नहीं।" अमर बोला- वासूदेव साहब ने जाने चाबी मुझे दी भी थी या नहीं। सात-आठ साल हो गए है यह मकान खरीदे। अब कुछ याद नहीं है, वैसे भी जब वासूदेव साहब ने यह बात मुझे बता दी कि इस कमरे को किसी भी हालत में कभी नहीं खोलना है तो मैंने इस कमरे की चाबी का भी ज्यादा ख्याल नहीं किया होगा। मेरा ख्याल है वासूदेव साहब ने चाबी मुझे दी ही नहीं थी।"

"हां नहीं दी थी।” मौसी बोल उठी- "मुझे याद है हमने मांगी भी नहीं थी । "

चाबी के बारे में इस रहस्योद्घाटन ने कि वह घर में नहीं है रेखा को बड़ा निराश किया। वह कुछ देर मौसी और अमर से बातें करती रही तथा फिर अपने कमरे में आ गई।

अपने कमरे में आकर रेखा, उस काले कमरे का ख्याल अपने जहन से नहीं निकाल पाई थी और न ही उस कमरे में

जाकर अन्दर से देखने की अपनी ख्याहिश को ही दबा पाई थी। बल्कि जाने क्यों उसे यह महसूस हो रहा था, जैसे

कोई उसके कान में कह रहा हो "आओ रेखा, चला वह कमरा देख लो...।"

अपना ध्यान बांटने को ही रेखा ने कैसेट लगाई और सुनने लगी। ध्यान थोड़ा बंटा और फिर कैसेट सुनते सुनते ही जाने कब उसे नींद आ गई।

रात को दो बज रहे थे। बारिश बंद हो चुकी थी। रेखा की आंख अचानक ही खुल गई।

उसका गला खुशक हो रहा था।

उसने उठकर साईड टेबिल पर रखे जग से पानी निकालना चाहा मगर जग तो खाली था। माया, शायद आज पानी रखना भूल गई थी। उसने जग उठाया, दरवाजा खोलकर बाहर आई और सीढ़ियां उतरने लगी। इरादा नीचे रखे फ्रिज से पानी लेकर आने का ही था। लेकिन नीचे पहुंची तो उसकी सोच बदल गई।

उसने जग डायनिंग टेबल पर छोड़ा और जैसे मंत्र-मुग्ध-सी ही उस बंद कमरे की तरफ बढ़ गई।

हैरत की बात यह थी कि अभी कुछ दर पहले प्यास की वजह से उसके गले में कटि से चुभ रहे थे। लेकिन अब वह - अहसास जाता रहा था। प्यास बुझ गई थी जैसे वह बड़े इत्मीनान से उस रहस्यमय कमरे की तरफ बढ़ती चली गई। और फिर... 1

वह जब उस कमरे के निकट पहुंची तो यह देखकर हैरान रह गई कि गंगा मौसी पहले से ही वहां मौजूद है।

"आओ रेखा आओ। मुझे मालूम था कि तुम यहां जरूर आओगी...।"

और फिर इससे पहले कि रेखा कुछ कहती, गंगा मौसी बड़ी तेजी से उसकी तरफ लपकी।

जैसे उसे मारना चाहती हो।
"बेवकूफ लड़की, क्यों अपनी जिन्दगी के पीछे हाथ धोकर पड़ी है, ठहर तो... मैं बताती हूँ तुझे।"

गंगा मौसी को यूं अपनी तरफ लपकते देखकर रेखा, फिर वह किसी चीज से उलझकर लौटी तो उसकी चींख निकल गई।
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