ये कैसा संजोग माँ बेटे का complete

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Rohit Kapoor
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Re: ये कैसा संजोग माँ बेटे का

Post by Rohit Kapoor »

मेरी निराशा अगले दिन भी मेरे साथ रही. निराशा के साथ साथ आत्मग्लानी और शरम का एहसास हो रहा था. जो मैने किया था वो समाज, कुदरत, मान मरियादा के खिलाफ था इसलिए मेरे मन में ऐसा करने के लिए पछतावे का एहसास भी हो रहा था. अगली रात जब हमारे ड्रॉयिंग रूम में टीवी देखने का टाइम हो गया तो मैं लगभग नही जाने वाला था. मैं शायद अपने कमरे मे ही रुकता मगर ये बात कि मेरे नजानें से वो मेरे रूम में आ सकती है मैने टीवी रूम जाने मे ही भलाई समझी. अब मैने जो धुन बनाई थी, उसका सामना करने का वक़्त था.

उसके व्यवहार में कोई भी बदलाव दिखाई नही दे रहा था जो शायद एक अच्छी बात थी. उसकी कोई भी प्रतिक्रिया ना देख मुझे बड़ी राहत हुई थी नाकी पिछली रात की तरह जब उसकी कोई भी प्रतिक्रिया ना देख मैं निराश हो गया था. मुझे एहसास हुआ कि हमारी दिनचर्या मे किसी तब्दीली के लिए मैं अभी तैयार नही था. मैने अचानक महसूस किया कि रात को माँ के साथ इकट्ठे समय बिताने से मुझे भी खुशी मिलती है. इस साथ से माँ के द्वारा मेरी भी एक ज़रूरत पूरी होती थी चाहे मनोवैग्यानिक तौर पर ही सही.

मैने हमारे चुंबन मे थोड़ा सा बदलाव कर उनको थोड़ा ठोस बनाने की कोशिश की थी और मैं ऐसा बिना कोई संकेत दिए या बिना कुछ जताए करने में सफल रहा था. मेरी शरम और आत्मग्लानि धीरे धीरे इस राहत से गायब होने लगी कि मैं बिना कोई कीमत चुकाए या बिना कोई सज़ा पाए सॉफ बच निकला था.

हालाँकि मेरे वार्ताव में तब्दीली आ गयी थी. मेरा उसको देखने का नज़रिया बदल गया था. उसे देखते हुए मुझे अब उतनी बैचैनि महसूस नही हो रही थी. मैने एक कदम और आगे बढ़ा दिया था और उसने मुझे ना कोसा था था ना ही कोई आपत्ति जताई थी. उस रात माँ को निहारने में मुझे एक अलग ही आनंद प्राप्त हो रहा था. यह बात जुदा थी कि मैं यकीन से नही कह सकता था कि जो कुछ हुआ था उसे उसकी कोई भनक भी लगी थी.


फिर से वही सब कुछ, हम बैठे टीवी देख रहे थे , उसने कहा "बेटा! मैं चलती हूँ, रात बहुत हो गयी है". इस वार मैने अपने होंठ गीले नही किए. चाहे मुझे कोई नकारात्मक प्रतिक्रिया नही मिली थी फिर भी मैने रात का तजुर्बा दोहराने की हिम्मत नही की. मैं आगे को होकर थोड़ा सा झुक गया और उसके चूमने का इंतजार करने लगा ताकि मैं भी अपने रूम मे जा सकूँ और उस सुखद मीठे एहसास में खुद को डुबो सकूँ जिसकी लहरें मेरे जिस्म में घूम रही थी.

उसके होंठ रोजाना की तरह मेरे होंठो से छुए जिसमे मेरे महसूस करने के लिए कुछ भी ख़ास नही था.

मगर मैने कुछ महसूस किया, कुछ हल्का सा, अलग सा.




यह बिल्कुल हल्का सा था, लगभग ना महसूस होने वाला. मेरे दिलो दिमाग़ में कोई संदेह नही था कि मैने उसके होंठो को हल्के से, बिल्कुल हल्के से सिकुड़ते महसूस किया था. जैसे हमारे होंठ किसी के गाल पर चुंबन लेते हुए सिकुड़ते हैं ठीक वैसे ही लेकिन बहुत महीन से. ये मेरी माँ का होंठो से होंठो का स्पर्श नही था बल्कि एक चुंबन था. यह पहली बार था जब माँ के होंठो ने मेरे होंठो पर कोई हलचल की थी.. आम हालातों में, मैं इसे उसके होंठो का असमय सिकुड़ना मान कर रद्द कर देता मगर ये कुदरती तौर पर होने की वजाय स्वैच्छिक ज़्यादा लग रहा था. एक हल्का चुंबन होने के अलावा एक हल्का सा, महीन सा दबाब भी था जो उसके होंठो ने मेरे होंठो पर लगाया था.

अगले दिन भर मैं बहुत परेशान रहा. मैं बस यही सोचे जा रहा था कि यह वास्तव में हुआ था या यह सब मेरी कल्पना की उपज थी क्योंकि मैं पहले से कुछ अच्छा होने की उम्मीद लगाए बैठा था. क्या वो भी मेरी तरह हमारे चुंबन को और ज़्यादा गहरा बनाना चाहती थी या फिर इसके उलट वो चुंबन को और गहरा होने से रोकने की महज कोशिश कर रही थी जैसे मेरे होंठो के गीलेपान ने जो एहसास हमारे चुंबन में भरा था वो उसको रोकना चाहती होगी जिससे होंठो को सिकोड़ने से वो शायद पक्का कर रही थी कि उसके होंठो का कम से कम हिस्सा मेरे होंठो को छुए.

अपनी जिग्यासा शांत करने के लिए ज़रूरी था कि मैं इसे एक बार फिर से महसूस करता. मुझे उसके साथ कल रात जैसी स्थिति में होना था और इस बार मैं हमारे शुभ रात्रि चुंबन की हर तफ़सील पर पूरा ध्यान देने वाला था. मैं इस बात पर भी तर्क वितर्क कर रहा था कि मुझे अपने होंठ गीले करने चाहिए या नही मगर इससे हालातों में बदलाव हो जाता. मुझे कल ही की तरह आज भी अपने होंठ सूखे रखने थे और फिर देखना था कि उसके होंठ क्या कमाल दिखाते हैं!

वो शाम और रात शुरू होने का समय और भी बैचैनि भरा था, मगर उतना बैचैनि भरा नही था जितना जब हम टीवी देख रहे थे, तब था जब मैं अपने शुभरात्रि चुंबन का इंतजार कर रहा था और समय लग रह था जैसे थम गया हो. वो इंतजार बहुत कष्टदाई था.

मगर अंत मैं उसके जाने का समय हो गया और हमारे रात्रि विदा के उस चुंबन का भी.

मैं हमेशा की तरह आगे को झुक गया. मैने अपनी आँखे बंद कर लीं ताकि मैं अपना पूरा ध्यान उस चुंबन पर केंद्रित कर सकूँ.

मैने उसके होंठ अपने होंठो पर महसूस किए.
मगर मैने उसके होंठो का कोई भी दबाब अपने होंठो पर महसूस नही किया जैसा मैने पिछली रात महसूस किया था. उसने अपने होंठ भी नही सिकोडे जैसे उसने पिछली दफ़ा किया था.

मगर फिर भी कुछ अलग था, कुछ अंतर था. मेरा उपर का होंठ उसके बंद होंठो की गहराई में आसानी से फिसल गया.

जाहिर था इस बार उसने अपने होंठ गीले किए थे.

अब यह मात्र एक संजोग था या फिर उसने जानबूझकर उन्हे गीला किया था, मैं कुछ नही कह सकता था क्योंकि मैने उसे अपने होंठ गीले करते नही देखा था. मैने उनका गीलापन तभी महसूस किया था जब उसने मेरे होंठ छुए थे. मैं यह मान कर नही चल सकता था कि उसने ऐसा जानबूझकर किया था, चाहे उसने ऐसा जानबूझकर किया हो तो भी. मगर एक बात तय थी; अगर उसने उन्हे जानबूझकर गीला किया था तो इसका मतलब वो भी हमारे रात्रि चुंबन को और ठोस बनाना चाहती थी, उसमे और ज़यादा गहराई चाहती थी, ठीक वैसे ही जैसे मैने कोशिश की थी हमारे चुंबन को और गहरा बनाने की, उसमे और एहसास जगाने की.

मैं उसके होंठो की नमी अपने होंठो पर महसूस कर सकता था बल्कि जब बाद में मैने अपने होंठ चाटे तो उसका स्वाद भी ले सकता था. मैं सोच रहा था कि क्या उसने भी मेरे होंठो का गीलापन ऐसे ही महसूस किया था और क्या उसने भी उसका स्वाद चखा था जैसे मैने उसका चखा था. क्या उसको भी मेरा मुखरस मीठा लगा था जैसे उसका मुखरस मुझे मीठा लगा था. मैं उसके जाने के काफ़ी समय बाद तक अपने होंठो को चाटता रहा ताकि चुंबन का वो स्वाद और सनसनाहट बनी रहे.

मेरी माँ ने मुझे शुभरात्रि के लिए नही चूमा था. मेरी माँ ने मुझे असलियत में चूमा था चाहे बहुत हल्के से ही सही. चाहे वो जानबूझकर किया था चाहे वो सिरफ़ एक संजोग था, मेरी जाँघो के बीच पत्थर की तरह कठोर लंड को उस अंतर का पता नही था. उस रात मुझे नींद बहुत देर बाद आई क्योंकि मुझे बुरी तरह आकड़े लंड के साथ सोना पड़ा था.

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Rohit Kapoor
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Re: ये कैसा संजोग माँ बेटे का

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हैरत की बात थी कि अगले दिन मुझे शरम और आत्मग्लानि का एहसास पहले की तुलना बहुत कम हो रहा था. मैने अपनी सग़ी माँ के कारण हुई अपनी उत्तेजना को स्वीकार लिया था और उसके कारण होने वाली अपनी उत्तेजना को लेकर अब शांत था. अपनी माँ के बारे में एसी भावनाएँ रखना सही था---- जब तक कि वो सिर्फ़ मेरे दिमाग़ तक सीमित थी. हालाँकि हमारे बीच हानि रहित मन को गुद-गुदाने वाला एक खेल चल रहा था, मगर अन्ततः यह एक खेल ही था, मुझे नही लगता था ये बहुत आगे तक बढ़ेगा. आख़िरकार वो मेरी माँ थी. मैं उसके कारण उत्तेजित हो सकता था और शायद इसमे कुछ ग़लत नही था. मगर मैं उसके साथ वो सब नही कर सकता था, जो एक मर्द मेरी माँ जैसी सुंदर, कामुक और मादकता से भरपूर नारी के साथ करना चाहेगा. हमारा रिश्ता इसकी इजाज़त नही देता था.

चाहे हम दोनो ने एक दूसरे को गीले होंठो से चूमा था, मगर ये हमारे बीच कुछ बदलने के लिए नाकाफ़ी था. अगर उसने भी अपने होंठ स्वैच्छा से गीले किए थे तो हम ने यह मान कर ऐसा किया था कि दूसरे को हमारी मंशा की मालूमात नही है, और हम ने यह संभावित अस्वीकारता के तहत किया था. मतलब अगर हम मे से एक ऐतराज जताता तो दूसरा भोलेपन का नाटक कर सॉफ सॉफ मुकर सकता था कि हमारे उन चुंबनो में उसने कुछ भी जोड़ा है और वो सिर्फ़ माँ बेटे के बीच साधारण 'गुडनाइट' चुंबन हैं. हम उस सीमा पे हल्का सा दबाब बना रहे थे मगर असलियत में हम यह कभी कबूल नही कर सकते थे कि हम सीमा पर कोई दबाब डाल रहे थे. कुछ था तो ज़रूर मगर हम उस कुछ को ठीक से पढ़ नही पा रहे थे. और हम उस कुछ पर अमल तो बिल्कुल भी नही कर सकते थे. जिस पल हममे एक उस कुछ पर अमल करता तो दूसरा खूदबखुद उससे भाग खड़ा होता. यही हमारी नियती थी.

मैने अपने प्रयोग को कुछ और में विकसित होने की उम्मीद नही की थी. यह हर तरह से एक हानिरहित प्रयोग था जो हमारे तन्हा दिलों को रात के अकेलेपन में थोड़ा गुदगुदा सकता, हममे थोड़ा जोश भर सकता, नसों में बहते ठंडे खून में थोड़ी गर्मी ला सकता मगर यह कुछ बड़ा होने की भूमिका नही बन सकता था. वो मेरी माँ थी और मैं उसका बेटा था. कुदरत की ओर से मर्यादा की रेखा खींची गयी थी और वो रेखा कभी भी पार नही की जा सकती थी---कभी भी नही.

मैं थोड़ा सा उदास और कुछ निराश था इस सोच से कि उस रेखा को कभी पार नही किया जा सकता. ज़रूर हमारे पास एक दूसरे को देने के लिए कुछ था मगर हम वो दूसरे को दे नही सकते थे. मैं बिना किसी स्पष्ट कारण के खुद को हताश महसूस कर रहा था और दिल पर इतना बोझ महसूस हो रहा था कि अगले दिन मैं टीवी देखने भी नही गया.

एक बार फिर से मैं अपने रूम में ही रहा. असलियत में, मैं उसका ध्यान और भी अपनी ओर खींचना चाहता था, क्योंकि मुझे यकीन था कि टीवी रूम में मेरी अनुपस्थिति की ओर उसका ध्यान जाएगा और वो ज़रूर कोशिश करेगी दिखाने कि कि उसे हमारे रात के साथ की कमी महसूस हो रही है. असलियत में, मैं एक प्रमाण के लिए तरस रहा था कि उसे भी हमारे साथ की बहुत ज़रूरत है.

वो मुझे देखने आई, जैसी मैने उम्मीद की थी कि वो आएगी, जैसे मेरा दिल चाहता था कि वो आए.

मैं अपने कंप्यूटर पर काम नही कर रहा था इसलिए पिछली बार का बहाना नही बना सकता था. मैं बेड पर बैठा हुआ था और सोच रहा था.

"बेटा तुम ठीक तो हो" उसने नरम स्वर में पूछा.

"हां, मैं ठीक हूँ माँ. बस थोड़ी थकावट सी महसूस हो रही है"

वो थोड़ी असमंजस में नज़र आ रही थी. मैं लेटा हुआ नही था जैसा कि मुझे होना चाहिए था अगर मैं वाकाई में बहुत थका हुआ होता. मैं तो बस बेड पर आराम से बैठा हुआ था. उसके चेहरे पर चिंता के बादल मंडराने लगे और मैं बता नही सकता था कि वो चिंता किस विषय में कर रही है. मैं उसके हाव-भाव पढ़ने की कोशिशकर रहा था कि शायद मुझे कुछ संकेत मिल जाए. मगर मुझे कुछ ना मिला.







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Rohit Kapoor
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Re: ये कैसा संजोग माँ बेटे का

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मुझे ऐसा लग जैसे वो कुछ कहना चाहती थी मगर वो अल्फ़ाज़ कहने के लिए वो खुद को तैयार ना कर सकी. मैं भी कुछ कहना चाहता था मगर क्या कहूँ ये मेरी समझ में नही आ रहा था. अंततः वो डोर की ओर मूडी और बिना गुडनाइट बोले जाने लगी.

उसका इस तरह बिना कुछ बोले जाना खुद में एक खास बात थी. मैं शायद उसके साथ ज़्यादती कर रहा था. मैने उसको इस समस्या से उबारने का फ़ैसला किया. मैने खुद को भी इस समस्या से बच निकलने का मौका दिया.

"अगर तुम थोड़ा सा समय दोगि तो मैं अभी आता हूँ. फिर मिलकर टीवी देखेंगे माँ" हमारी दूबिधा, हमारा संकोच, हमारी शरम, अगर हम ये सब महसूस करते थे तो इसे ख़तम करने और वापस पहले वाले हालातों में लौटने का सबसे बढ़िया तरीका यही था कि हम सब कुछ भूल कर ऐसे वार्ताव करते जैसे कुछ हुआ ही ना हो.

मैं देख सकता था कि उसके कंधों से एक भारी बोझ उतर गया था क्योंकि वो एकदम से खिल उठी थी, मुझे भी एकदम से अच्छा महसूस होने लगा. पिछली रात कुछ भी घटित नही हुआ था. हम ने कुछ भी नही किया था, और हमने ग़लत तो बिल्कुल भी कुछ नही किया था.

हम ने टीवी ऑन किया. इस बार हम ने एक दो विषयों पर हल्की फुल्की बातें भी की. किसी कारण हमारे बीच पहले के मुक़ाबले ज़्यादा हेल-मेल था. हम में कुछ दोस्ताना हो गया था. हालांकी हमारा रात्रि मिलन छोटा था मगर पहले के मुकाबले ज़्यादा अर्थपूर्ण था. हम ने इसे एक दूसरे को गुडनाइट बोल ख़तम किया और एक दूसरे के होंठो पे हल्का सा चुंबन लिया- एक हल्का, सूखा और नमालूम पड़ने वाला चुंबन. उसके बाद हम दोनो अपने अपने कमरों में चले गये.

उसके बाद के आने वाले दिनो में मैने उसके चुंबन के उस मीठे स्वाद को अपनी यादाश्त में ताज़ा रखने की बहुत कोशिश की. हमने अपनी रोज़ाना की जिंदगी वैसे ही चालू रखी जिसमे हम इकट्ठे बैठकर टीवी देखते, कुछ बातचीत करते और फिर रात का अंत एक रात्रि चुंबन से करते- एक हल्के, सूखे और नमालूम चलने वाले चुंबन से.

मैं इतना ज़रूर कहूँगा कि हमारे बीच गीले चुंबनो के पहले की तुलना में अब हेल-मेल बढ़ गया था. हमारे बीच एक ऐसा संबंध विकसित हो रहा था जिसने हमे और भी करीब ला दिया था. हम अब वास्तव में एक दूसरे से और एक दूसरे के बारे में खुल कर ज़्यादा बातचीत करने लगे थे. ऐसा लगता था जैसे उसके पास कहने के लिए बहुत कुछ था क्योंकि मैं बहुत देर तक बैठा उसकी बातें सुनता रहता जो आम तौर पर रोजमर्रा की जिंदगी की साधारण घटनायों पर होती थीं.

अब इस पड़ाव पर मैं दो चीज़ें ज़रूर बताना चाहूँगा. पहली तो यह कि बिना अपने पिता का ध्यान खींचे हमारे लिए ये कैसे मुमकिन था इतना समय एकसाथ बैठ पाना? दूसरा, अपनी दिनचर्या उसकी पिताजी के साथ दिनचर्या से अलग रखना हमारे लिए कैसे मुमकिन था?

हमारा घर इंग्लीश के यू-शॅप के आकर में बना हुआ है. मेरे पिताजी का बेडरूम लेफ्ट लेग के आख़िरी कोने पे है, जबकि किचन राइट लेग के आख़िरी कोने पे है. किचन के बाद ड्रॉयिंग रूम है जिसमे हम टीवी देखते हैं. ड्रॉयिंग रूम के बाद मेरा कमरा है. मेरे कमरे के बाद एक और कमरा है. उसके बाद पिताजी के साइड वाली लेफ्ट लेग सुरू होती है, जहाँ एक कमरा है और उसके बाद मेरे माता पिता का बेडरूम. मेरे पिताजी की साइड के कॉरिडर मे एक बड़ा ग्लास डोर था जो एक वरान्डे में खुलता था जिसके दूसरे सिरे पर मेरी तरफ के कॉरिडर और किचन के बीचो बीच था. दिन के समय माँ अपने कॉरिडर से उस ग्लास डोर का इस्तेमाल कर किचन में आती जाती थी. रात के समय वरामदे के डोर बंद होते थे इसलिए पहले उसे किचन से ड्राइंग रूम जाना पड़ता था और वहाँ से कॉरिडर में जो मेरे रूम के सामने से गुज़रता था फिर मेरे रूम के साथ वाला कमरा, फिर दूसरी तरफ का कमरा और अंत में पिताजी का कमरा.

पिताजी के कमरे से ड्रॉयिंग रूम की दूरी काफ़ी लंबी थी जिससे उनके लिए घर की इस साइड पर क्या हो रहा है, सुन पाना या देख पाना नामुमकिन था. हम कम आवाज़ में बिना उनको परेशान किए टीवी देख सकते थे जा बातचीत कर सकते थे क्योंकि टीवी की आवाज़ कभी भी उन तक नही पहुँच सकती थी और ना ही टीवी या किचन की लाइट उनके लिए परेशानी का सबब बन सकती थी. इसके बावजूद हम अपनी आवाज़ बिल्कुल धीमी रखते ता कि वो जाग ना सके. हमें देखने का एक ही तरीका था कि वो खुद ड्रॉयिंग रूम में चलकर आते मगर मेरे माता पिता के पास उनकी एक अपनी छोटी फ्रिड्ज थी और साथ ही मे चाइ और कॉफी मेकर भी उनके पास था. इसलिए जब वो खाने के बाद एक बार अपने कमरे में चले जाते थे तो उनको कभी भी इस और वापस आने की ज़रूरत नही पड़ती थी.


मैं सुबेह कॉलेज जाता था. कॉलेज से दोपेहर को लौटता था और फिर रात को ट्यूशन जाता था जबके मेरे पिता सुबह आठ से पाँच तक काम करते थे. वो सुबह छे बजे के करीब निकलते थे क्योंकि उनको थोड़ा दूर जाना पड़ता था. वो शाम को सात बजे के करीब लौट आते, खाना खाते, कुछ टाइम टीवी देखते और लगभग नौ बजे के करीब अपने रूम में चले जाते. जब मैं ट्यूशन से वापस आता तब तक पिताजी सो चुके होते. मैं नहा धोकर खाना ख़ाता और फिर टीवी देखने बैठ जाता जिसमे अब मेरी माँ भी मेरा साथ निभाने आ जाती. इससे मेरी माँ को इतना समय मिल जाता कि उसकी दिनचर्या का एक हिस्सा पिताजी के साथ गुज़रता और दूसरा हिस्सा वो मेरे साथ टीवी देख कर गुज़रती. इस दिनचर्या से उसे ना तो पिताजी की चिंता रहती और ना ही जल्द सोने की.

जैसे जैसे मैं और मेरी माँ दोनो ज़्यादा से ज़्यादा समय एक साथ बिताने लगे, धीरे धीरे हमारी आत्मीयता बढ़ने लगी. कभी कभी माँ उसी सोफे पर बैठती जिस पर मैं बैठा होता, हालांके वो दूसरी तरफ के कोने पर बैठती. यह सिरफ़ समय की बात थी कि हममे से कोई एक फिर से हमारे चुंबनो में कुछ और जोड़ने की कोशिश करता. अब सवाल यह था कि पहल कौन करेगा और दूसरा उसका जवाब कैसे देगा.

एक वार वीकेंड पर मेरे पिताजी एक सेमिनार मे हिस्सा लेने शहर से बाहर गये हुए थे. उनके जाने से हम एक दूसरे के साथ और भी खुल कर पेश आ रहे थे. मैं एक नयी फिल्म बाज़ार से खरीद लाया. हम दोनो आराम से बेफिकर होकर फिल्म देख रहे थे क्योंकि आज उसको जाने की कोई जल्दी नही थी. हम दोनो उस रात और रातों की तुलना में बहुत देर तक एक दूसरे के साथ बैठे रहे. जहाँ तक कि दिन मे खरीदी फिल्म ख़तम होने के बाद हम टीवी पर एक दूसरी फिल्म देखने लगे. उस रात वाकाई हम बहुत देर तक ड्रॉयिंग रूम में बैठे रहे. अंत में खुद मैने, और माँ ने कहा के अब हमे सोना चाहिए.

मैने डीवीडी प्लेयर से डीवीडी निकाली उसको उसके कवर में वापस डाला और फिर;टीवी बंद कर दिया. जबकि वो किचन में झूठे बर्तन सींक मे डालने लगी ताकि सुबेह को उन्हे धो सके.
अब जैसा के मैं पहले ही बता चुका हूँ हमारे घर के कॉरिडर ड्रॉयिंग रूम से सुरू होते थे, सबसे पहले मेरे रूम के सामने से गुज़रते थे, उसके बाद दो गेस्ट रूम और अंत में उसके बेडरूम पे जाकर ख़तम होता था.

मैने ड्रॉयिंग रूम का वरामदे मे खुलने वाला डोर बंद किया जबकि उसने किचन और ड्रॉयिंग रूम की लाइट्स बंद की. उसके बाद हम नीम अंधेरे में चलते हुए कॉरिडर में आ गये.

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आम तौर पर हमारे रात्रि चुंबन के समय मैं सोफे पर बैठा थोड़ा आगे को झुकता था और वो मेरे सामने खड़ी होकर नीचे झुक कर मेरे होंठो पर चुंबन देती थी मगर उस दिन वो उस जेगह होना था जहाँ कॉरिडर से वो अपने रूम में चली जाती और मैं अपने रूम में जो के मेरे बेडरूम के सामने होना था. हम दोनो मेरे बेडरूम के दरवाजे के आगे एक दूसरे को सुभरात्रि बोलने के लिए रुक गये. अब हमे वो चुंबन हम दोनो के एक दूसरे के सामने खड़े होकर करना था जिसमे कि उसे अपना चेहरा उपर को उठाना था जबके मुझे अपना चेहरा नीचे को झुकाना था.

उस चुंबन की आत्मीयता और गहराई पहले चुंबनो के मुक़ाबले खुद ब खुद बढ़ गयी थी, रात के अंधेरे की सरसराहट उसे रहास्यपूर्ण बना रही थी. हम इतने करीब थे कि मैं उसके मम्मो को अपनी छाती के नज़दीक महसूस कर सकता था, यह पहली वार था जब हम ऐसे इतने करीब थे. मुझे नही मालूम कि उसके मामए वाकाई मुझे छू रहे थे या नही मगर वो मेरी पसलियों के बहुत करीब थे, बहुत बहुत करीब! उसके माममे हैं ही इतने बड़े बड़े!

हम दोनो ने उस दिन काफ़ी वाक़त एकसाथ गुज़ारा था, खूब मज़ा किया था, एक दूसरे के साथ का बहुत आनंद मिला था. मन में आनंद की तरंगे फूट रही थी और जो अतम्ग्लानि मैने पिछले गीले चुंबनो को लेकर महसूस की थी वो पूरी तेरह से गायब हो चुकी थी. महॉल की रोमांचिकता में तब और भी इज़ाफा हो गया जब उसने अपना हाथ (असावधानी से) मेरे बाएँ बाजू पर सहारे के लिए रख दिया.

जब उसने उपर तक पहुँचने के लिए खुद को उपर की ओर उठाया तो मैने निश्चित तौर पे उसके भारी मम्मो को अपनी छाती से रगड़ते महसूस किया. मैने खुद को एकदम से उत्तेजित होते महसूस किया और फिर ना जाने कैसे, खुद बा खुद मेरी जीब बाहर निकली और मेरे होंठो को पूरा गीला कर दिया जब वो उसके होंठो को लगभग छूने वेल थे. वो मुझे इतने अंधेरे में होंठ गीले करते नही देख पाई होगी.

जैसे ही हमारे होंठ एक दूसरे से छुए, प्रतिकिरिया में खुद बा खुद उसका दूसरा हाथ मेरे दूसरे बाजू पर चला गया और इसे संकेत मान मेरे होंठो ने खुद बा खुद उसके होंठो पर हल्का सा दबाब बढ़ा दिया.

यह एक छोटा सा चुंबन था मगर लंबे समय तक अपना असर छोड़ने वाला था.

उसके होंठ भी नम थे. उसने उन्हे नम किया था जैसे मैने अपने होंठ नम किए थे. क्योंकि मैं उसके उपर झुका हुआ था, इसलिए जब हमारे होंठ आपस में मिले और उन्होने एक दूसरे पर हल्का सा दवाब डाला तो दोनो की नमी के कारण उसका उपर का होंठ मेरे होंठो की गहराई में फिसल गया जबकि मेरा नीचे वाला होंठ उसके होंठो की गहराई में फिसल गया. और सहजता से दोनो ने एक दूसरे के होंठो को अपने होंठो में समेटे रखा. मैने उसका मुखरस चखा और वो बहुत ही मीठा था. मुझे यकीन था उसने भी मेरा मुख रस चखा था.

जैसे ही उसको एहसास हुआ के हमारा शुभरात्रि का वो हल्का सा चुंबन एक असली चुंबन में तब्दील हो चुका है तो वो एकदम परेशान हो उठी. उसके हाथों ने मुझे धीरे से दूर किया और उसने अपना मुख मेरे मुख से दूर हटा लिया. हमारा चुंबन थोड़ा हड़बड़ी में ख़तम हुया, वो धीरे से गुडनाइट बुदबुदाई और जल्दी जल्दी अपने रूम को निकल गयी.

मैं कम से कम वहाँ दस मिनिट खड़ा रहा होऊँगा फिर थोड़ा होश आने पर खुद को घसीटता अपने बेडरूम में गया और जाकर अपने बेड पर लेट गया.

मेरे लिए यह स्वाभाविक ही था कि मैं अगले दिन कुछ बुरा महसूस करते हुए जागता. हम ने एक दूसरे को ऐसे चूमा था जैसा हमारे रिश्ते में बिल्कुल भी स्विकार्य नही था और फिर यह बात कि वो लगभग वहाँ से भागते हुए गयी थी, से साबित होता था कि हम ने कुछ ग़लत किया था. मुझे समझ नही आ रहा था कि हम एक दूसरे का सामना कैसे करेंगे

हम इसे एक बुरा हादसा मान कर भूल सकते थे और अपनी ज़िंदगी की ओर लौट सकते थे, मगर असलियत में यह कोई हादशा नही था. हम ने इसे स्वैच्छा से किया था इसमे कोई शक नही था.

1. मैने वास्तव में अपनी सग़ी माँ को चूमा था और वो जानती थी कि मैने उसे जिस तरह चूमा था वैसे मैं उसे चूम नही सकता था. यह बात कि वो लगभग वहाँ से भागती हुई गयी थी, साबित करती थी कि मेरा उसे चूमना ग़लत था और वो खुद यह जानती थी कि यह ग़लत है इसलिए उसने इस पर वहीं विराम लगा दिया इससे पहले के हम इस रास्ते पर और आगे बढ़ते.

मगर हम ने इस समस्या से निजात पाने का आसान तरीका चुना. हम ने ऐसे दिखावा किया जैसे कुछ हुआ ही नही था. वैसे भी ऐसा कुछ कैसे घट सकता था? वो मेरी माँ थी और मैं उसका बेटा. कुछ ग़लत नही घट सकता था. जो भी पछतावा था जा शरम थी वो सिर्फ़ हमारी चंचलता और शरारत की वेजह से थी.

मुझे जल्द ही समझ में आ गया के इंसानी दिमाग़ की यही फ़ितरत होती है कि वो किसी ग़लती की वेजह से होने वाली आत्मग्लानी को यही कह कर टाल देता है कि ग़लती की वेजह अवशयन्भावि थी. हम ने एक सुखद, आत्मीयता से भरपूर शाम बिताई थी इसलिए यह स्वाभाविक ही था हम एक दूसरे को खुद के इतने नज़दीक महसूस कर रहे थे कि वो चुंबन स्वाभाविक ही था. इसके इलावा इतना गहरा अंधेरा था कि हमे कुछ दिखाई भी तो नही दे रहा था.

जब एक बार पछतावे की भावना दिल से निकल गयी और उस 'शरारत' को न्यायोचित ठहरा दिया गया तो मेरे लिए माँ को नयी रोशनी में देखना बहुत मुश्किल नही रह गया था. मैं वाकाई में माँ को एक नयी रोशनी में देख रहा था. मैं उसे ऐसे रूप में देख रहा था जिसकी ओर पहले कभी मेरा ध्यान ही नही गया था.

मैने ध्यान दिया कि वो नये और आधुनिक कपड़ों की तुलना में पुराने कपड़ों में कहीं ज़्यादा अच्छी लगती है. वो नयी और महँगी स्कर्ट्स की तुलना में अपनी पुरानी फीकी पड़ चुकी जीन्स में कहीं ज़यादा अच्छी दिखती थी. वो ब्लाउस के मुक़ाबले टी-शर्ट में ज़्यादा सुंदर लगती थी. उसके बाल चोटी में बँधे ज़्यादा अच्छे लगते थे ना कि जब वो हेर सलून से कोई स्टाइल बनवा कर आती थे. यहाँ जिस खास बिंदु की ओर मैं इशारा करना चाहता हूँ वो यह है कि वो मुझे वास्तव में बहुत सुंदर नज़र आने लगी थी-----एक सुंदर नारी की तरह.
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माँ कैसी दिखती है, मैं इसमे ख़ासी दिलचस्पी लेने लगा. मेरी नज़रें चोरी चोरी उसके बदन का मुआईना करने लगी जैसे वो मुझे सुंदर नज़र आने वाली किसी सुंदर लड़की क्या करती. मुझे माँ को, उसके बदन और उसके बदन की विशेषताओ का इस तरह चोरी चोरी अवलोकन करने में बहुत आनंद आने लगा. वो मुझे हर दिन ज़्यादा, और ज़्यादा सुंदर दिखने लगी और मैं भी खुद को अक्सर उत्तेजित होते महसूस करने लगा.

माँ की तरफ से भी कुछ बदलाव देखने को मिल रहा था. मैने महसूस किया कि वो अब ज़्यादा हँसमुख हो गयी थी. वो पहले की अपेक्षा ज़्यादा मुस्कराती थी, उसकी चाल मे कुछ ज़्यादा लचक आ गयी थी, और तो और मैने उसे कयि बार कुछ गुनगुनाते भी सुना था. उसके स्वभाव मैं हमारी 'उस मज़े की रात' के बाद निश्चित तौर पर बदलाव आ गया था. चाहे उसने उस रात मुझे दूर हटा दिया था और जो कुछ हमारे बीच हो रहा था उसे रोक दिया था इसके बावजूद हमारे बीच घनिष्टता पहले के मुक़ाबले बढ़ गयी थी. हम एक दूसरे के नज़दीक आ गये थे- अध्यात्मिक दृष्टिसे भी और शारीरिक दृष्टि से भी.

वो मुझे अच्छी लगने लगी थी और मैने उसे एक दो मौकों पर बोला भी था कि वो बहुत अच्छी लग रही है. उसने भी दो तीन बार मेरी प्रशंसा की थी, मतलब एक तरह से मुझे विश्वास दिलाया था कि हमारे बीच जो कुछ भी हो रहा था वो दोनो और से था ना कि सिर्फ़ मेरी और से. कम से कम मेरी सोच अनुसार तो ऐसा ही था, मैं पूरा दिन माँ के ख़यालों में ही गुम रहने लगा था. एक दिन उमंग में मैने उसके लिए चॉक्लेट्स भी खरीदे.

मैने उसके मम्मे देखने के हर मौके का फ़ायदा उठाया. उसके मम्मे इतने बढ़िया, इतने बड़े-बड़े और इतने सुंदर थे कि मेरा मन उनकी प्रशंसा से भर उठता. हो सकता है इस बात का तालुक्क इस बात से हो कि कभी उन पर मेरा हक़ था मगर वो थे बहुत सुंदर. मैं नही जानता उसका ध्यान मेरी नज़र पर गया कि नही मगर अगर उसने ध्यान दिया था तो उसने मेरी तान्क झाँक को स्वीकार कर लिया था और इसकी आदि हो गयी थी.

मेरा ध्यान उसकी पीठ पर भी गया जब भी वो मुझसे विपरीत दिशा की ओर मुख किए होती. उसकी पीठ बहुत ही सुंदर थी. उसकी गंद का आकर बहुत दिलकश था, उभरी हुई और गोल मटोल, बहुत ही मादक थी. और उसे उस मादक गान्ड का इस्तेमाल करना भी खूब आता था. उसकी चाल मैं एसी कामुक सी लचक थी कि मैं अक्सर उससे सम्मोहित हो जाता था.

एक दिन मुझे देखने का अच्छा मौका मिला, मेरा मतलब पूरी तरह खुल कर उसका चेहरा देखने का मौका. वो कुछ कर रही थी और उसकी आँखे कहीं और ज़मीन हुई थीं, इस तरह से कि वो मुझे अपनी ओर घूरते नही देख सकती थी. मैने उसका चेहरा, उसके गाल, उसके होंठ और उसकी तोढी देखी और मेरा मन उसकी सुंदरता से मोहित हो उठा. मैने ध्यान दिया कि माँ के होंठ बड़ी खूबसूरती से गढ़े हुए थे जो अपने आप में बहुत मादक थे. उन्हे देख कर चूमने का मन होता था. इनसे हमारे चुंबनो को लेकर मेरी भावनाएँ और भी प्राघड़ हो गयी थीं जब मेरे दिल में यह ख़याल आया कि हमारे रात्रि चुंबनो के समय यही वो होंठ थे जिन्हे मेरे होंठो ने स्पर्श किया था. वो याद आते ही मुँह में पानी आ गया.

मैने इस बात पर भी ध्यान दिया कि वो बहुत प्यारी, बहुत आकर्षक है. वो अक्सर कुछ न कुछ ऐसा करती थी कि मैं अभिभूत हो उठता. किचन में कुछ ग़लत हो जाने पर जिस तरह वो मुँह फुलाती थी, जब कभी किसी काम में व्यस्त होने पर फोन की घंटी बजती थी और उसकी थयोरियाँ चढ़ जाती थीं, जब वो बगीचे में किसी फूल को देखकर मुस्कराती थी. मुझे उसमे एक बहुत ही प्यारी और बहुत ही सुंदर नारी नज़र आने लगी थी.

जितना ज़्यादा मेरी उसमे दिलचपसी बढ़ती गयी उतना ही ज़्यादा मैं उसके प्रेम में पागल होता गया. 'पागल' यही वो लगेज है जो मैं समझता हूँ मेरी हालत को सही बयान कर सकता है. मगर मैं नही जानता था कि उसकी भावनाएँ कैसी थी जा वो क्या महसूस करती थी.

यह जैसे अवश्यंभावी था कि मेरे पिता को फिर से शहर से बाहर जाना था और लगता था जैसे वो इसी मौके का इंतेज़ार कर रही थी. इस बार खुद उसने हमारे रात को देखने के लिए फिल्म खरीदी थी और मैं उस फिल्म को उसके साथ देखने के लिए सहमत था. हम ने रात के खाने को बाहर के एक रेस्तराँ से मँगवाया और दोनो ने एकसाथ उस खाने का बहुत आनंद लिया. हम दोनो ने सोफे पर बैठकर फिल्म देखी, जिसमे मैं सोफे की एक तरफ बैठा हुया था और वो दूसरी तरफ. फिल्म ख़तम होने के बाद हम ने टीवी पर थोड़ा समय कुछ और देखा, अंत में हम टीवी देख देख कर थक गये. अपने कमरों में जाने की हमे कोई जल्दबाज़ी नही थी और ना ही सुभरात्रि कहने की कोई जल्दबाज़ी थी. हम तभी उठे जब और बैठना मुश्किल हो गया था और हमे उठना ही था.
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