ये कैसा संजोग माँ बेटे का complete

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Rohit Kapoor
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Re: ये कैसा संजोग माँ बेटे का

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उसने किचन की लाइट्स बंद की और दरवाजे चेक किए कि वो सही से बंद हैं जा नही जबके मैने डीवीडी से फिल्म निकाल कर उसके कवर में डाली और रिमोट्स के साथ दूसरी जगह रखी और सभी एलेकट्रॉनिक उपकर्नो को बंद कर दिया. पिछली बार की अचानक और रूखी समाप्ति के बावजूद, हमारे बीच कोई अटपटापन नही था. सब कुछ सही, सहज और शांत लग रहा था. जब हम ड्रॉयिंग रूम से उठकर कॉरिडोर की ओर चलने लगे तो मेरा दिल थोड़ी तेज़ी से धड़कने लगा. मैं आस लगाए बैठ था कि शायद आज फिर से मुझे हमारी और रातों के चुंबनो की तुलना मे थोड़ा गहरा, थोड़ा ठोस चुंबन लेने को मिलेगा. हमारी पिछली रात जब मेरे पिता घर से बाहर गये हुए थे, बहुत आत्मीयता से गुज़री थी और हमारा सुभरात्रि चुंबन हमारे आमतौर के चुंबनो से ज़्यादा ठोस था. मैं उम्मीद कर रहा था कि अगर पिछली रात से ज़्यादा नही तो कम से कम हमारे चुंबन की गहराई उस रात जितनी तो होगी, मैं उम्मीद कर रहा था कि शायद मुझे उसके मुखरस का स्वाद चखने को मिलेगा जा हो सकता है मुझे उसके होंठो के अन्द्रुनि हिस्से को महसूस करने का मौका भी मिल जाए.

चलते चलते जब हम मेरे बेडरूम के डोर के आगे रुके, तो मेरे दिल की धड़कने बहुत तेज़ हो गयी थीं. मेरी साँसे उखाड़ने लगी थीं. मगर हाए! उसने मुझे कुछ करने का मौका नही दिया. वो मेरे ज़्यादा नज़दीक भी नही आई. मैने ध्यान दिया उसने हमारे बीच एक खास दूरी बनाए रखी थी.

मुझे बहुत निराशा हुई. उसने हमारे बीच आत्मीयता को एक हद्द तक रखने का जो फ़ैसला किया था, मुझे उसका सम्मान करना था. यह मानते हुए कि हम दोनो में ऐसी आत्मीयता संभव नही हो सकती, उसके लिए अपने होंठ सूखे रखना आसान था ताकि वो चुंबन सिरफ़ सुभरात्रि की सूभकामना मात्र होता. मगर फिर भी कम से कम मैं, उसके साथ बिताई उस सुखद रात के आनंद की लहरों में खुद को तैरता महसूस कर सकता था. कम से कम हमारा साथ पहले की तुलना में ज़्यादा अर्थपूर्ण था, ज़्यादा दोस्ताना हो गया था.

वो अपने कमरे में चली गयी और मैं अपने.


सब कुछ सही था. पहले भी कुछ ग़लत घटित नही हुआ था और ना ही अब हुआ था. यह बहुत बड़ी राहत थी के हम ने शाम और रात का अधिकतर समय एक साथ बिताया था और मर्यादा की रेखा ना तो छुई गयी थी, ना ही पार की गयी थी और ना ही उसे मिटाया गया था. और हम ने पूरा समय खूब मज़ा भी किया था!

मैं राहत महसूस कर रहा था और शांति भी कि हम ने मिलकर पूरा समय अच्छे से बिताया था और इस बार उसे ना तो मुझे धकेलना पड़ा था और नही अपने रूम की ओर भागना पड़ा था. हमारा रिश्ता लगता था और भी परिपक्व हो गया था जिसने ठीक ऐसी ही पिछली रात को हुई ग़लतियों से बहुत कुछ सीख लिया था, और साथ ही उन ग़लतियों को नज़रअंदाज़ करना भी सीख लिया था .

कोई पँद्रेह बीस मिनिट बाद मेरे दरवाजे पर दस्तक हुई.


"कम इन" मैं बोला तो उसने दरवाजा खोला और अंदर दाखिल हुई.

उसने कपड़े बदल कर नाइटी पहन ली थी और तभी मुझे एहसास हुया कि हमारी रात भिन्न होने का एक कारण यह भी था कि फिल्म देखने के समय उसने जीन्स और टी-शर्ट पहनी हुई थी ना कि नाइटी जैसे वो आम तौर पर रात को हमारे इकट्ठे समय बिताने के समय पहनती थी.

मैने उसे उस नाइटी में पहले कभी नही देखा था. वो देखने में नयी लग रही थी. वो उसके मम्मो पर बड़ी खूबसूरती से झूल रही थी. नाइटी की डोरियाँ उसे इतनी अच्छे से नही संभाले हुई थीं जितने अच्छे से उसके मम्मे उसे संभाले हुए थे. उसके नंगे काढ़े और अर्धनगन जंघे मेरी आँखो के सामने अपने पुर शबाब पर थी और उसकी पतली सी नाइटी से झँकता उसका गड्राया बदन बहुत कामुक लग रह था.

"मुझे नींद नही आ रही" वो बोली. "मैने सोचा मैं तुम्हारे साथ थोड़ा और समय बिता लूँ"

“मुझे नींद नही आ रही” वो बोली “मैने सोचा क्यों ना तुम्हारे साथ कुछ और समय बिता लूँ”

उसने कहा कि उसे नींद नही आ रही और मेरा ध्यान एकदम से उसकी उस बात पर चला गया जिसमे उसने कहा था के कभी कभी वो इतनी कामोत्तेजित होती है के उसे नींद भी नही आती. क्या यह संभव था कि मेरी माँ उस समय उस पल कामोत्तेजित थी? मैं जानता था अगर वो कामोत्तेजित है तो निश्चित तौर पर मेरी वेजह से है. यह विचार कि मेरी माँ मेरे कारण इतनी कामोत्तेजित है कि वो सो भी नही सकती , ने मेरे अंदर जल रही कामोत्तेजना की आग को और भड़का दिया.

"हां, हां माँ! क्यों नही! मुझे बहुत अच्छा लगेगा. मुझे खुद नींद नही आ रही!" मैने उसे कहा.

“थॅंक्स” उसे मेरे जबाब से काफ़ी खुशी महसूस हुई लगती थी. वो मेरे कंप्यूटर वाली कुर्सी पर बैठ गयी. मुझे ऐसा लगा जैसे वो कुछ परेशान सी है. वो कुर्सी को अपने कुल्हों से दाईं से बाईं और बाईं से दाईं ओर घूमती मेरे कमरे में इधर उधर देख रही थी. मैं अपने बेड पर बैठा बस उसे देख रहा था. वो मुझे नही देख रही थी.

कुछ समय बाद उसने पूछा “तुम्हे फिल्म कैसी लगी?” उसकी साँस थोड़ी सी उखड़ी हुई थी.

“अच्छी थी. मुझे बहुत मज़ा आया” मैने उसे जबाब दिया. मुझे अच्छे से याद था वो सवाल हम कुछ समय पहले ड्रॉयिंग रूम में एक दूसरे से पूछ चुके थे मगर फिर भी मैने उससे पूछा “तुम्हे कैसी लगी माँ”

जब भी वो कुछ बोलती तो उसकी साँस उखड़ी हुई महसूस होती. मेरी साथ भी अब यही समस्या थी, मगर उतनी नही जितनी उसके साथ. जब हम वहाँ खामोशी से बैठे थे तब मुझे ध्यान आया कि उसने मेरे साथ सिरफ़ और ज़्यादा समय ही नही बिताना बल्कि उसके मन में इसके इलावा और भी कुछ था. मगर तकलीफ़ इस बात की थी इस ‘और कुछ’ का कोई सुरुआती बिंदु नही था. मैं कोई ग़लत अंदाज़ा लगाने का ख़तरा उठाना नही चाहता था और वो अंदाज़ा लगाने मैं मेरी मदद करने के लिए अपनी तरफ से कोई संकेत कोई इशारा कर नही रही थी.
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Rohit Kapoor
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Re: ये कैसा संजोग माँ बेटे का

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मैं फिर भी खुश था, वो वहाँ मेरे पास मोजूद थी और मैं उसे उस नाइटी में देख पा रहा था. उसके मम्मे वाकई में बहुत सुंदर थे. मैं उनसे अपनी नज़रें नही हटा पा रहा था. मुझे ताज्जुब था अगर उसने ध्यान भी नही था के किस तेरह मेरी नज़रें उसके बदन की तारीफ कर रही थी. उसने अपनी नज़रें फरश पर ज़माई हुई थी और अपने पाँव मोड़ कर कुर्सी के नीचे रखे हुए थे.

एक बार जब खामोशी बर्दाशत से बाहर हो गयी , वो कुर्सी से उठ खड़ी हो गयी और मेरे कमरे की दीवार पर लगे पोस्टर्स को देखने लगी और फिर वो मेरे बुक्ससेल को देखने लगी जिसमे मेरी कुछ किताबें पड़ी थीं. उसके कमरे में टहलने से उसकी ओर से कुछ हवा मेरी तरफ आई और वो हवा अपने साथ एक बहुत मनमोहक सी सुगंध लेकर आई जिसे मेरी इंद्रियों ने महसूस किया. मैने उससे उसी पल पूछा “माँ, तुमने आज नया पर्फ्यूम लगाया है?”

वो मेरी तरफ मूडी. उसके चेहरे पर मुस्कराहट थी और मैं नही जानता उस मुस्कराहट का कारण क्या था. लगता था जैसे मैं बस उसके बदन पर नये पर्फ्यूम की पहचान करके ही उसे खुश कर सकता था. “हां, नया है. तुम्हे अच्छा लगा?”

उसका स्वाल स्वाभाविक ही था. “हुउँ माँ, बहुत अच्छा है” मैने उसे ज्वाब दिया.

“थॅंक्स” वो बोली. वो मेरे नज़दीक आई, जो मैं यकीन से कह सकता हूँ कि उसकी कोशिश थी कि मैं उसके पर्फ्यूम की महक अच्छे से ले सकूँ. वो मेरे बेड के साथ रखे नाट्स्टॉंड के पास आई तो नाइट्स्टॉंड के टेबल लॅंप से निकलती रोशनी से उसका जिस्म नहा उठा. तब जाकर मैने ध्यान दिया कि उसके चेहरे पर हल्का सा शृंगार लगा हुया था.


अब जाकर मुझे एहसास हुया कि वो अपने कमरे में खुद को तैयार करने के लिए गयी थी क्योंकि उसे मेरे कमरे में आना था. उसने मेरे कमरे में आने की योजना पहले से बना रखी थी और आने से पहले उसने खुद को थोड़ा सा सजाया था, सँवारा था. चेतन या अचेतन मन से, उसने कोशिश की थी कि वो अच्छी लगे, जाहिर था उसने मुझे अच्छी लगने लिए किया था. और यह विचार के उसने इस लिए शृंगार किया था कि मुझे सुंदर लग सके बहुत बहुत उत्तेजक था, कामुक था.

हमारे बीच कुछ घट रहा था. इतना मैं पूरे विश्वास से कह सकता था कि हमारे बीच कुछ खास घट रहा था. मैं उसके पर्फ्यूम की सुगंध नज़दीक से लेने के बहाने उस पर थोड़ा सा झुक सकता था और हो सकता था हमारे बीच वो “कुछ खास” होने का सुरुआती बिंदु बन जाता. मगर मुझे तब सुघा जब वो नाइट्स्टॉंड से दूर हॅट गयी. मैने एक बेहतरीन मौका गँवा दिया था जो शायद उसने मुझे खुद दिया था.

तब मैने फ़ैसला किया कि मुझे बेड से उठ जाना चाहिए और उसके थोड़ा नज़दीक होने की कोशिश करनी चाहिए, सही मैं मुझे ऐसा ही करना चाहिए था. मैं जानता था अगर मैने उसके नज़दीक जाने की कोशिश की तो कुछ ना कुछ होना तय था. मुझे एक बहाना चाहिए था उठने का और बेड से उतरने का. तब हम जिस्मानी तौर पर एक दूसरे के करीब आ जाते और कौन जानता है तब क्या होता. मैं सिरफ़ एक ही बहाना बना सकता था; बाथरूम जाने का.

जब मैं बाथरूम से बाहर आया तो देखा वो फिर से उसी कुर्सी पर बैठी हुई है और मेरे बाहर आने का इंतेज़ार कर रही है. जिस अंदाज़ में वो बैठी थी, बड़ा ही कामुक था. वो कुर्सी के किनारे पर बैठी हुई थी, उसके हाथ कुर्सी को आगे से और जाँघो के बाहर से पकड़े हुए थे, उसकी टाँगे सीधी तनी हुई थी, और उसका जिस्म थोड़ा सा आगे को झुका हुआ था. उसकी नाइटी उसके घुटनो से थोड़ा सा उपर उठी हुई थी और उसकी जाँघो का काफ़ी हिस्सा नग्न था, उसकी जांघे बहुत ही सुंदर दिख रही थी.



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Re: ये कैसा संजोग माँ बेटे का

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mast kahaani hai rohit bhai
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(^^d^-1$s7)
(एक बार ऊपर आ जाईए न भैया )..(परिवार में हवस और कामना की कामशक्ति )..(लेखक-प्रेम गुरु की सेक्सी कहानियाँ running)..(कांता की कामपिपासा running).. (वक्त का तमाशा running).. (बहन का दर्द Complete )..
( आखिर वो दिन आ ही गया Complete )...(ज़िन्दगी एक सफ़र है बेगाना complete)..(ज़िद (जो चाहा वो पाया) complete)..(दास्तान ए चुदाई (माँ बेटी बेटा और किरायेदार ) complete) .. (एक राजा और चार रानियाँ complete)..(माया complete...)--(तवायफ़ complete)..(मेरी सेक्सी बहनेंcompleet) ..(दोस्त की माँ नशीली बहन छबीली compleet)..(माँ का आँचल और बहन की लाज़ compleet)..(दीवानगी compleet..(मेरी बर्बादी या आबादी (?) की ओर पहला कदमcompleet) ...(मेले के रंग सास,बहू और ननद के संग).


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(फैमिली में मोहब्बत और सेक्स (complet))........(कोई तो रोक लो)......(अमन विला-एक सेक्सी दुनियाँ)............. (ननद की ट्रैनिंग compleet)..............( सियासत और साजिश)..........(सोलहवां सावन)...........(जोरू का गुलाम या जे के जी).........(मेरा प्यार मेरी सौतेली माँ और बेहन)........(कैसे भड़की मेरे जिस्म की प्यास)........(काले जादू की दुनिया)....................(वो शाम कुछ अजीब थी)
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Re: ये कैसा संजोग माँ बेटे का

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मुझे अपनी अलमारी तक जाने के लिए उसके पास से गुज़रना था. जब मैं उसके पास से उसके पाँव के उपर से गुज़रा तो मैने उसके पाँव एकदम से हिलते देखे जैसे उसे मेरे इतने पास से गुज़रने के कारण मेरे द्वारा कुछ करने की आशंका हो. शायद वो स्पर्श पाना चाहती थी. उस समय वो बहुत ही मादक लग रही थी और मैं उसे छूने के लिए मरा जा रहा था.

मैं बेड पर उस स्थान पर बैठा जो उसकी कुर्सी के बिल्कुल नज़दीक था. अब हम एक दूसरे के सामने बैठे थे और हमारे बीच दूरी बहुत कम थी. मेरे पाँव लगभग उसके पाँव को छू रहे थे. हम दोनो वहाँ खामोशी से बैठे थे क्योंकि हमारे पास कहने के लिए कुछ भी नही था. कहते भी तो आख़िर क्या कहते? माहौल बहुत ही प्यारनुमा था मगर हम एक दूसरे से प्यार जता नही सकते थे. मैं आगे बढ़कर उसका हाथ नही थाम सकता था. वो अपनी जगह से उठकर बेड पर मेरे साथ नही बैठ सकती थी. हमारे हिलने डुलने पर जैसे यह एक बंधन लगा हुआ था, जो हमें वहाँ इस तेरह बैठाए हुए था. हम पत्थर की मूर्तियों की तरह जड़वत थे और उम्मीद कर रहे थे कि कुछ हो और हमे इस बंधन से छुटकारा मिल जाए.

अगर कुछ हो सकता था तो वो यही था कि वो कहती;”मुझे अब चलना चाहिए”

मैं उसे जाने नही देना चाहता था और मुझे यकीन था वो भी जाना नही चाहती है. मगर कहीं पर, मन के किसी अंधेरे कोने मैं एक आवाज़ हमें हमारे उस रात्रि साथ को वहीं ख़तम कर देने के लिए बार बार आगाह का रही थी. उस महॉल मैं बहुत कुछ हो जाने की संभावना थी.

उसने सिर्फ़ इतना कहा था कि उसे अब सोने के लिए जाना चाहिए मगर उसने अपनी जगह से उठने जी कोई कोशिश ना की, वो वैसे ही बैठी थी. तब मुझे लगा कि उसने मुझे एक छोटा सा अवसर दिया है.

"मगर क्यों? तुम क्यों जाना चाहती हो माँ?" जब मेरे मुँह से वो लफ़्ज निकले तो मैं उसकी प्रतिकिरिया को लेकर डरा हुआ था

मैं डर रहा था क्योंक मुझे लग रहा था कि उसने मुझे जो मौका दिया है वो अचेतन मन से दिया है, इसलिए हो सकता है वो मेरे लफ्जो के पीछे छिपे मेरे मकसद को पढ़ ना पाए. मैं नही चाहता था कि वो जाने के लिए सामने टरक दे; कि वो थकि हुई है या उसे नींद आ रही है जा रात बहुत हो गयी गई. मैं उसे यह कहते हुए सुनना चाहता था कि वो इसलिए जाना चाहती है क्योंकि उसे डर था कि अगर वो वहाँ और ज़्यादा देर तक रुकी तो कुछ ऐसा हो सकता था जो नही होना चाहिए था.

मैं जानता था कि वो भी इस बात को महसूस कर सकती है कि हमारे बीच कुछ होने की संभावना है, इसलिए वो यह बात अपने होंठो पर ला सकती थी. असल मैं खुद मुझे कोई अंदाज़ा नही था कि अगर वो वहाँ रुकी तो क्या हो सकता था. हमारे रिश्ते की मर्यादा इतनी उँची थी कि उस समय भी, उन हालातों मैं वहाँ इस तरह उसके सामने बैठ कर मैं ज़्यादा से ज़्यादा एक मधुर चुंबन की उम्मीद कर सकता था. हालांकी मेरी पेंट में मेरा पत्थर की तरह तना हुआ लॉडा इस बात की गवाही भर रहा था कि अगर वो ज़्यादा देर वहाँ रुकती तो क्या क्या हो सकता था.

मेरा लॉडा तना हुया था! मैं कामोउन्माद में जल रहा था! और मैं कबूल करता हूँ कि मेरी इस हालत की वेजह मेरी माँ थी, मगर रोना भी इसी बात का था कि वो मेरी माँ थी.

मैं जानता था कि उसकी हालत भी कुछ कुछ मेरे जैसे ही है. हम एक दूसरे के इतने पास पास बैठे थे कि एक दूसरे के जिस्म की गर्मी को महसूस कर सकते थे. मगर इस धरती पर जीते जी यह नामुमकिन था कि हम अपनी उत्तेजना की उस हालत को एक दूसरे के समने स्वीकार कर लेते, या एक दूसरे को इस बारे में कोई इशारा कर सकते या वास्तव में हम अपनी उत्तेजना को लेकर कुछ कर सकते.

उसने मेरी बात का जवाब बहुत देर से दिया. वो अपने पैरों पर नज़र टिकाए फुसफसाई, "मुझे नही मालूम"

मुझे लगा कि अनुकूल परिस्थितियों मैं उसका जबाब एकदम सही था. उसने उन चन्द लफ़्ज़ों में बहुत कुछ कह दिया था.

"यहाँ पर हमारे सिवा और कोई नही है" मैने भी फुसफसा कर कहा. मेरी बात सीधी सी थी, मगर उन हालातों के मद्देनज़र उनके मायने बहुत गहरे थे.

"लेकिन अगर मैं रुकती भी हूँ तो हम करेंगे क्या?" उसका जबाव बहुत जल्दी और सहजता से आया मगर मुझे नही लगता था कि वास्तव में उन लफ़्ज़ों का कोई खास मतलब भी था.

मेरे पास लाखों सुझाव थे कि उसके रुकने पर हम क्या क्या कर सकते थे मगर मेरे मुँह से सिर्फ़ इतना ही निकला, "कुछ भी माँ, जो तुम्हे अच्छा लगे"

हम वहाँ कुछ देर बिना कुछ किए ऐसे ही खामोशी से बैठे रहे. शायद यही था जो हम कर सकते थे, बॅस खामोशी से बैठ सकत थे, यह सोते हुए कि वास्तव में हम क्या क्या कर सकते थे, बिना कुछ भी वैसा किए.

अंततः खामोशी असहाय हो गई. वो और ज़्यादा देर स्थिर नही बैठ सकती थी. वो एकदम से उठकर खड़ी हो गयी.


मैं उसके उस तरह एकदम से उठ जाने से डर सा गया. मैं भी उसके साथ उठ कर खड़ा हो गया, इसके फलस्वरूप अब हम एक दूसरे के सामने खड़े थे.

हम एक दूसरे के बेहद पास पास खड़े थे. हम एक दूसरे के सामने रात के गेहन सन्नाटे में चेहरे के सामने चेहरा किए खड़े थे.

उसने पहला कदम उठाया, शायद वो इसके लिए वो मुझसे ज़यादा तय्यार थी.

वो आगे बढ़ी और उसने मुझे आलिंगन में ले लिया. मुझे इसकी कतयि उम्मीद नही थी;इसलिए मैं उसके आलिंगन के लिए तैयार भी नही था.

उसने अपनी बाहें मेरी कमर के गिर्द लप्पेट दी और तेज़ी से मुझे अपने आलिंगन में कस लिया. मैने प्रतिक्रिया में ऐसा कुछ भी नही किया जिसकी उसने उम्मीद की होगी. मैने बहुत ही बेढंग और अनुउपयुक्त तरीके से उसे अपने आलिंगन में लेने की कोशिश की मगर इससे पहले कि मैं उसे अपने आलिंगन में ले पाता , उसने तेज़ी से मुझे छोड़ दिया और उतनी ही तेज़ी से वो वहाँ से निकल गयी.

उसने अपने अंदर जो भावनाओं का आवेश दबाया हुया था मैं उसे महसूस कर सकता था. मुझे उम्मीद थी उसने भी मेरे अंदर के उस आवेश को महसूस किया होगा. अगर इशारों की बात की जाए तो हम दोनो पूरी तेरह से तैयार थे मगर हमारे कुछ करने पर मर्यादा का परम प्रतिबंध लगा हुया था. हम सिर्फ़ वोही कर सकते थे जो हमारे रिश्ते में स्वीकार्या था; पहले के हालातों के मद्देनज़र एक चुंबन; अब के हालातों अनुसार एक आलिंगन.
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यह सिर्फ़ एक आलिंगन था, और कुछ भी नही मगर उसके मम्मे मेरे सीने पर दो नरम, मुलायम गर्माहट लिए जलते हुए निशान छोड़ गये थे. उसके जाने के बहुत देर बाद तक भी मैं उस आलोकिक आनंद में डूबता इतराता रहा.


यह पूरी तेरह से स्थापित हो चुका था कि कुछ ना कुछ घट रहा था और यह सॉफ था कि हम दोनो उस ‘कुछ ना कुछ’ मैं हिस्सा ले रहे थे. मगर समस्या यह थी कि हम ज़्यादा से ज़्यादा एक दूसरे के गीले होंठो को चूम सकते थे या होंठो से होंठो पर हल्का सा दबाब डाल सकते थे या आलिंगंबद्ध हो सकते थे. मैं उसकी पीठ को अपने हाथो से सहला नही सकता था जैसा मैं करना चाहता था. मैं उसके होंठो में होंठ डाल उसे खुले दिल से चूम नही सकता था. मैं उसके मम्मो को इच्छानुसार छू नही सकता था. मेरे हाथ उसके मम्मो को छूने के लिए तरसते थे मगर मैं ऐसा नही कर सकता था.


मैं सोच रहा था कि मेरी तरह उसके भी अरमान होंगे. जिस तरह मैं उसे छूने के लिए तरसता था क्या वो भी एसी इच्छाएँ पाले बैठी थी. अब तक जो कुछ हमारे बीच हुआ हुआ था उस हिसाब से तो उसके भी मेरे जैसे कुछ अरमान होंगे. मगर मुझसे ज़यादा शायद वो खुद के अरमानो को काबू किए हुए थी. आख़िरकार मैं एक मर्द था, और एक मर्द होने के नाते, मेरे लिए अपनी सग़ी माँ के लिए कामनीय भावनाएँ रखना कोई बहुत बड़ी बात नही थी. मगर एक माँ होने के नाते, उसके लिए अपने बेटे के लिए एसी भावनाएँ रखना बहुत ग़लत बात थी. मगर इसमे, कोई शक नही था कि हमारे बीच वो कामनीय भावनाएँ मोजूद थी


मैने फ़ैसला कर लिया था की अब मैं सीधे सीधे हमारे बीच जिस्मानी संपर्क बढ़ाने की कोशिश करूँगा.


उस रात ने हमारे रिश्ते में और भी घणिष्टता ला दी थी. हमारी अगली रात सबसे बढ़िया रही. हम एक दूसरे से काफ़ी सहजता से बात कर रहे थे, बल्कि बीच बीच में एक दूसरे को छेड़ भी रहे थे. ऐसा लगता था जैसे हमारे रिश्ते ने नयी उँचाई को छू लिया था मगर इस सब के बावजूद थोड़ी दूरी थी जो शायद हमे अपने बीच बनाई रखनी ज़रूरी थी.


अगली रात जब उसने कहा कि उसे जाना चाहिए तो मैं भी उसके साथ जाने के लिए उठ खड़ा हुआ. मुझे उसके बाद वहाँ अकेले बैठने का मन नही था. यह हमर नयी दिनचर्या बन चुकी थी और मैं इसका ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाना चाहता था.

हमने बत्तियाँ बंद की, दरवाज़ों को बंद किया और कॉरिडोर की ओर बढ़ गये. जब हम मेरे रूम के सामने पहुँच गये तो मैं उसे ‘गुडनाइट’ कहने के लिए रुक गया.

जब उसने देखा कि मैं कॉरिडोर के बीचो बीच रुक गया हूँ, उसने कॉरिडोर के दूसरे सिरे की ओर देखा जहाँ से कॉरिडोर उसके बेडरूम की साइड को मूड़ जाता था. मैं समझ गया कि वो यही देखने की कोशिश कर रही थी कि वहाँ कोई है तो नही, जिसका सीधा मतलब था कि वो यकीन बनाना चाहती थी कि कहीं मेरे पिताजी तो वहाँ से हमे नही देख रहे थे. उसने मुझे दरवाजे की ओर धकेला. जाहिर था वो कॉरिडोर में ‘गुडनाइट’ नही कहना चाहती थी.
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